________________
पर्चासागर [३७३ ]
और बहुतसे जोव नहीं पाते । उनका क्रम इस प्रकार है । अनुदिश या अनुसर विमानवासी कल्पातीत देव वहाँसे आफर बलभद्र, तीर्थकर, चक्रवर्ती पर पाते हैं किंतु वहाँसे देवोंमेंसे आकर वसुदेव नहीं होते। यह नियम है । सो ही मूलाचारमे लिखा है
णिबुदिगमणे रामत्तणे य नित्ययरचक्कवद्वित्ते ।
अणदिसणुत्तरवासीतदो चुदा होंति भयणिज्जा ।। ४० ॥ ऐसा शलाका पुरुषोंके होनेका नियम है।
१९६-चर्चा एकसौ छयानवैवीं प्रश्न- यह मनुष्य किस-किस गतिसे आकर हो सकता है तथा किस-किस गतिसे आकर नहीं हो
सकता।
समाधान-अग्निकाय और वायुकाय इन दोनोंके सूक्ष्म तथा स्थूल ओष आकर मनुष्यभव धारण नहीं करते ऐसा नियम है बाकीके समस्त गतियोंके जीव आकर मनुष्य हो सकते हैं । सो ही मूलाचारमें लिखा हैसव्वेपि तेउकाया सव्वे तह बाउकाइया जीवा।ण लहति माणुसतं णियमादु अणंतर भवेहिं ।। दंडक भाषामें भी लिखा है
तेजकाय अरु वायुकाय । इन विन और सबै नर थाय ।
१९७-चर्चा एकसौ सतानवेवीं प्रश्न-अन्यमतके तपसी परिवाजक आदि तप करते हैं वे भरकर ऊपर स्वर्गमें कहाँ तक जा सकते हैं।
समाधान--असंख्यात वर्षको आयुवाले जीव अर्थात् कुभोगभूमिके मनुष्य वा तिथंच मरने के बाद अपने मिथ्यात्वरूप भावोंसे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क इन तीनों ही जासिके देवोंमें उत्पन्न होते हैं । वे आगे वैमानिक देवोंमें उत्पन्न नहीं हो सकते। इसी प्रकार जो उत्कृष्ट भावोंको धारण करनेवाले हिंसापूर्वक पंचाग्नि १. नरकसे निकलकर चक्रवती, बलदेव, प्रतिवासुदेव नहीं होते ऐसा नियम है इसमें तीर्थंकरका निषेध नहीं है तथा शलाका पुरुषोंका
मनुष्य तिथंच गतिसे आकर होनेका निषेध है। इससे सिद्ध होता है कि तीर्थकर स्वर्ग वा नर फसे आकर हो सकते हैं।