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चर्चासागर [x4]
वह उस पाप के फलसे उस पशुके शरीरमें जितने रोम हैं उतने ही हजार वर्ष तक अग्निमें पकाया जाता है।
यथा
याति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भो नर । तावद्वर्षसहस्राणि पश्यन्ते पशुघातकाः ॥
भारतमें श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं कि विष्ठाके कीड़ेको और स्वर्गमें रहनेवाले इन्द्रको दोनोंको जीवित रहनेकी आकांक्षा एकसी है। दोनोंके जीवित रहनेकी इच्छामें कोई कमी नहीं है । इन्द्र महा सुखी है सो उसे तो जीवित रहने की इच्छा सबा लगी ही रहती है। परन्तु विष्ठाका फोड़ा भी मरना नहीं चाहता दुखी होने पर भी वहीं रहना चाहता है। इससे सिद्ध होता है कि उसको भी जीवित रहनेको इच्छा लगी हुई है। इसी प्रकार मरनेका भय दोनोंको एकसा है। दोनों ही मरनेसे डरते हैं मरनेमें सभीको समान दुःख होता है। इस लिये जिस प्रकार अपने प्राण मुझे प्यारे लगते हैं उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी अपने-अपने प्राण प्रिय लगते हैं । यही समझकर बुद्धिमान पुरुषोंको धोर और भयंकर ऐसा प्राणियोंका वध कभी नहीं करना चाहिये । उपदेश बुद्धिमानों को ही दिया जाता है। मूर्ख और अज्ञानी पुरुष तो किसीकी मानता हो नहीं है इसलिये उसको कहना हो व्यर्थ है । सो ही भारतमें लिखा है—
अमेयमध्ये कीटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालये । समाना जीविताकांक्षा समं मृत्युभयं द्वयोः || १ || यथा ममप्रियाः प्राणास्तथा चान्यस्य देहिनः । इति मत्त्रा न कर्तव्यो घोरप्राणिवधो बुधैः ॥
इसी प्रकार मार्कंडेय पुरागमें श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा है कि हे अर्जुन! इस पृथिवीमें भी में हूं। समस्त अग्नि, वायु, वनस्पति आदिमें भो मैं हूँ और तीनों लोकोंके समस्त प्राणियोंमें भी मैं हूँ। मैं सर्वगत वा सब जगह सब पदार्थों में, सब जीवोंमें रहनेवाला हूँ। इसलिये सब ओवोंमें मुझे समझकर जो जीवको हिंसा नहीं करते उनकी रक्षा में करता हूँ। जो जावोंको हिंसा करते हैं उनका क्षय होता है। ऐसा मार्कंडेय पुराण में लिखा है। यथा
पृथिव्यामप्यहं पार्थ सर्वाग्नौ च जलेप्यहम् । वनस्पतिगतोप्यहं सर्वभूतगतोप्यहम् ॥ यो मां सर्वगतं ज्ञाखा न हिंसति कदाचनः । तस्याहं न प्रणस्यामि स मे न प्रणस्यति ॥
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