________________
वर्षासागर - ४०७ ]
|_
ऐसा क्यों नहीं सिद्ध किया ? तो इसका उत्तर यह है कि यह प्राकृत भाषाका शब्द है । संस्कृतका नहीं है। प्राकृत भाषामें नकारको णकार हो जाता है। इसलिये णमो ही बनता है । नमो नहीं ।
कदाचित् कोई यह कहे कि संस्कृत ही बना लेगा यहिये । नमो अरहंतान् अथवा नमो मरहंतानां ऐसा बना लेना चाहिये वा नमोर्हद्भ्यः बना लेना चाहिये । सो भी ठीक नहीं है क्योंकि यह मूलमन्त्र अनावि है । आम्नायपूर्वक ऐसा ही चला आ रहा है । इसलिये इनको इसी प्रकार " णमो अरहंताणं" इसी रूपमें पढ़ना चाहिये ।
इस णमोकार मन्त्रकी महिमा अपरम्पार है । जो जोब इसका जप करते हैं वे इच्छानुसार फल पाते हैं। इस मन्त्रके प्रसादसे पहले अनेक जीव तिर चुके हैं। अब अनेक जीव तिर रहे हैं और आगे अनेक जीव तिरेंगे । इस महामन्त्रके गुणोंकी महिमा अनंत है, अपार है, योगी लोग भी इसकी महिमाका पार नहीं पा सकते फिर अन्य तुच्छ बुद्धिवाले तो इसका पार कैसे पा सकते हैं। इस महामन्त्रको जपनेवाले वा धारण करनेवाले अनेक जीव अनेक प्रकारके फलोंको पाकर स्वर्गादिक उत्तम गतियोंमें उत्पन्न हुये अथवा केवलज्ञान पाकर मोक्ष पधारे। अनेक जीवोंके अनेक प्रकारके विघ्न दूर हुए। इस्थादि इस महामन्त्रके गुणोंको महिमाका वर्णन पुण्यास्तव, आराधना कथाकोश, व्रतकथाकोश, पादचंपुराण, महापुरा, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि अनेक जैन शास्त्रों में कथासहित बहुत विस्तारके साथ वर्णन किया है। वहाँसे देख लेना चाहिये । वह सब यहाँ लिखा नहीं जा सकता ।
1
इस महामन्त्र जप करनेके और भी बहुतसे प्रकार हैं। जैसे पैंतीस अक्षरका मन्त्र, सोलह, छह, पाँच चार, वो, एक आदि अक्षरोंके मन्त्रों द्वारा तथा गुरुके उपवेशानुसार अन्य मन्त्रोंके द्वारा इसका ध्यान वा चितवन करना चाहिये । सो ही लिखा है
पणतीस सोल छप्पण चदु दुगमेगं च जवह झाएह । परमेट्ठि वाचयाणं अण्णंचगुरूवएसेण ॥
- द्रव्य संग्रह गाथा ४९ ।
पैंतीस अक्षरका मंत्र
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरिआणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥
• DES M
[ vot