________________
सागर
[ ४०६ ]
ईशः किं छिन्नलिंगो यदि विगतभयः शूलपाणिः कथं स्यात् । नाथः किं भैक्ष्यचारी यतिरिति स कथं सांगनः सात्मजश्च ॥ आर्द्राजः किन्त्वजन्मा सकलविदित किं वेत्ति नात्मान्तरायं । संक्षेपात्सम्यगुक्त पशुपतिमपशुः कोत्र धीमानुपास्ते ॥
इससे सिद्ध होता है कि महादेव सब देवोंका देव वा शिवरूप मोक्षरूप नहीं हो सकता । जो आठों कर्मोसे रहित हैं वे ही शिव वा सिद्ध हो सकते हैं।
तीसरे परमेष्ठी आचार्य परमेष्ठी है के आचार्य परमेष्ठी पंचाचार आदि छत्तीस गुणरूपी बाह्य लक्ष्मीसे तथा रत्नत्रयरूपी अन्तरंग लक्ष्मीसे सुशोभित रहते हैं तथा अपने शुद्ध आत्मारूपी सर्वोत्कृष्ट स्थानमें लोन रहते हैं इसलिये वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। सो ही नीतिसारमें लिखा हैपंचाचाररतो नित्यं मूलाचारविदग्रणीः । चातुर्वर्णस्य संघस्य स आचार्य इतीष्यते ॥
चौथे पदमें उपाध्याय परमेष्ठी है वे उपाध्याय परमेष्ठी पच्चीस गुणरूपी बाह्य लक्ष्मीसे तथा रत्नत्रयरूपी अन्तरंग लक्ष्मीसे सुशोभित रहते हैं तथा शुद्ध आत्मस्वरूप उत्कृष्ट स्थानमें सदा लोन रहते हैं । इस लिये वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं । सो हो नीतिसारमें लिखा है
अनेक भयसंकीर्णशास्त्रार्थविक्कुतिक्षयः । पंचाचाररतोज्ञेय उपाध्यायसमाहिते ||
पांचवें पदमें सर्व साधु परमेष्ठी हैं । वे साधु परमेष्ठी अट्ठाईस मूलगुणरूपी बाह्य लक्ष्मीसे तथा रत्नत्ररूपी अन्तरंग लक्ष्मीले सुशोभित रहते हैं और निज शुद्धात्मरूपी परम स्थानमें विराजमान रहते हैं। इसलिये ये साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। सो ही नीतिसारमें लिखा हैसर्वद्वन्द्वविनिर्मुको व्याख्यानादिषु कर्मसु । विरक्तो मौनवान् घ्यानी साधुरित्यभिधीयते ॥
[ ४०
इस प्रकार सिद्ध होता है कि अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु ये पांचों ही परमेष्ठी हैं और इन्हीं वाचक णमोकार मंत्र है । इसलिये यह णमोकार मंत्र पंच परमेष्ठीका वाचक है ।
earer कोई यह कहे कि यहाँपर "गमोअरहंताणं" पाठ सिद्ध किया है सो "नमो अरहंताणं" "