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वर्षासागर [ ३९४ ]
F से आचार्य कहलाते हैं सो सब मिष्या है। वे नामके आचार्य हैं, यथार्य आचार्य नहीं हैं। पांच प्रकारके म आचारोंको पाले बिना आचार्य कहना सर्व मिथ्या है। भारतके शांतिपर्व में लिखा है
___अन्यथा नाममात्रं स्यादिन्द्रगोपस्य कीटवत् ।। अर्थात् "पवि गुण न हो तो केवल नाममात्रसे ही वह पदार्थ पुकारा जाता है। जैसे बरसातमें लालकोडेको इन्सको गाय कहते हैं।।
इसके आगे 'णमो उवण्शायाण' ऐसा पद है। इसका संस्कृतमें 'नमः उपाध्यायेभ्यः' बनता है। यह उपाध्याय शब्द उप उपसर्ग पूर्वक इङ्ग अध्ययने धातुसे बनता है । जो अध्यापयति अर्थात् अध्ययन करावे उनको । अध्यापक वा अध्याय कहते हैं। जो द्वादशांग श्रुतज्ञानको स्वयं अध्ययन करें वा दूसरोंको अध्ययन करावे उनको अध्याय वा अध्यापक कहते हैं उसका अर्थ समीप है । जो द्वादशांगको समीप कर उध्ययन करावे उनको उपाध्याय कहते हैं। इन्हीं उपाध्यायको पाठक कहते हैं। यह पाठक शब्द पठ् धातुसे बनता है। जिसका । अर्थ पठनपाठन है। जो वादशांगको स्थयं पढ़ें या औरोंको पढ़ावें उनको पाठक कहते हैं । इस प्रकार उपाध्याय वा पाठक शब्द सिद्ध होता है ।
आगे प्रकारान्तरसे इसकी निक्ति लिखते हैं---
भगवान अरहन्तदेवने जो ग्यारह अंग, चौवह पूर्वरूप द्वादशांगका निरूपण किया है उसको जो अध्ययन करें, फरावे उनको उपाध्याय कहते हैं । सो हो मूलाचारमें लिखा है-- द्वादशांगंजिनाख्यानं स्वाध्यायः कथितोबुधैः । उपदिशति स्वाध्यायं तेनोपाध्याय उच्यते॥
प्राकत में भी लिखा है-- वारं संगं जिणक्खादं सज्झायं कथिदं बुधै। उवदेसइ सज्झाया तणोवज्झाय उच्चदि ।।
स्वाध्यायोऽध्येतव्यः । जो अपने में व्यापक हो उसको स्वाध्याय वा उपाध्याय कहते है। अधि शम्वका अर्थ व्यापक है । जो द्वादशांगमें व्यापक हा, तल्लीन वा तन्मय हो, तवरूप हो उसको स्वाध्याय कहते हैं। जो द्वादशांग श्रुतज्ञानमें स्वयं लीन हो तथा औरोंको भी लोन कराधे, स्वयं पठन-पाठन करे वा औरोंको पठनपाठन करावे उसको उपाध्याय वा पाठक कहते है।