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प्रकारके आचारोंको स्वीकार करें अथवा इन पांचों प्रकारके आचारोंमें जो गमन करें उनको आचार्य कहते हैं। लिखा भी है "दर्शनज्ञानचारित्रतपोवोन आचारन्ति इति आचार्याः ।"
अथवा 'आ' का अर्थ आमंत्रण भी है। आमंत्रणका अर्थ सामने करना है। अथवा सामने होना है। पर्चासागर [ ३९३ ] जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य इन पांचों आचायोको अपने सामने करें अथवा जो स्वयं इन पाँचों आचारों
के सामने हों उनको आचार्य कहते हैं।
आगे इसको निरुक्ति कुछ और विशेषताके साथ लिखते हैं।
जो वर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य इन पांचों आचारोंके स्वरूपको रातदिन यथार्यरूपसे जाने, परमार्थसे जाने उनको 'सदाचार' कहते हैं सत् शब्द का अर्थ अचछा भला सुशोभित है। वित् शब्दका अर्थ सम्यग
ज्ञान है जिसके सुशोभित होनेवाले पांचों गावारों से जाना हो, जो पांचों सत्रोंको परमार्थ से जाने उनको । सदाचारवित् आचार्य कहते हैं । जो गणधराविक महामुनियों के द्वारा अंगीकार किये हये, धारण किये हुए ।
आचरणोंको स्वयं सदाकाल आचरण करें उनको सवाचरितंचर आचार्य कहते हैं। अथवा सवा आचरण करने योग्य अर्थात मनिपरके योग्य दीक्षाकाल शिक्षाकाल आदि सबका अच्छी तरह आचरण कर जो कता
चके उनको सदाचारितंचर आचार्य करते हैं। अथवा जो अन्य मनियोंसे पांचों आचारोंका अ । उनको आचार्य कहते हैं। इस प्रकार आचार्यपवको निशक्ति है । सो हो मूलाचारमें लिखा है--
सदाचारवित् सदाचरितंचरः आचारं यत्लाच्चर्यते तेनोच्यते आचार्यः। प्राकृत भाषामें भी लिक्षा है-- सदा आयारविदण्हू सदा आइरियं चरे आपारं आयारवंतो आइरिय उच्चते ॥
इस प्रकार यह आचार्य पद सिद्ध होता है सो इसको विभक्ति आदि पहले कहे हुए अरहन्त वा सिद्धके समान समझ लेना चाहिये । शस् विभक्ति लाकर द्वितीयाका बहुवचन आचार्यान् सिर कर लेना चाहिये । र अथवा नमः शब्दके योगमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर 'नमः आचार्येभ्यः' बना लेना चाहिये। इन दोनोंका प्राकृतभाषामें 'णमो आइरिआणं' बन जाता है
लोकमें ब्राह्मणोंमें भी कितने ही आचार्य होते हैं किन्हींका गोत्र आचार्य है, कोई रसोई मावि बनाने ।