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चान
चिसिागर
चाहिन्नाचा-चाचा-
विवेहोंमें रहनेवाले साधुओंको लोके सर्वसाधु ऐसा कहते हैं। इसके रूप भानु शवक्के समान चलते हैं । शस्। विभक्ति लगा कर लोके समान ऐसा हिलोणाला नामुमत जनता। इसके पहले नमो शब्द लगानेसे 'नमो लोके सर्वसाधून्' बन जाता है।
इस संसारमें संयोगी साधु, अयोगी साधु, रामवत् नोमावत्, विष्णुस्वामी, माधवाचार्य आदि कितने ही साधु कहलाते हैं तथा निर्मोही नागा, साखी, दादुपंथी कबीर रामचरण क्यालके शिष्य आदि कितने ही प्रकारके साधु कहलाते हैं। परंतु वे सब गुणोंसे साधु नहीं हैं केवल जातिमाप्रसे साधु कहलाते हैं । जिस प्रकार किसीकी जाति क्षत्रिय है. किसीकी वैश्य है. किसीको ब्राह्मण है तथा किसीको शव है। उसी प्रकार उन साधुओंको जाति भी साधु ही है वे केवल नाम मात्रके साधु हैं । यदि उनको नाम मात्रसे साधु न माना जाय।
तो फिर उनमें शस्त्र धारण करना, खेती करना, विवाह करना, व्यापार करना, हिंसादिक महारम्भ करना, । वस्त्राभरण धारण करना, खाद्य-अखाद्य भक्षण करना, हिंसा, सूट, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पांचों पापोंमें । तल्लीन रहना, मन्त्र, यंत्र, तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, शिल्प, गोत, नृत्य, वावित्र आदिके द्वारा जीविका करना, आकर्षण स्तम्भन मोहन, वशीकरण, मारण, उच्चाटन आवि विद्याओंके द्वारा आजीविका करना, असि-मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, पशुपालन आदिमें तल्लीन रहना और मोक्षके उपायोंसे बहुत दूर रहना आदि क्रियाएँ । फैसे बन सकेंगी। जो नाम मात्रके साधु है वे ही इन क्रियाओं को करते हैं । उनको साघु मानना मिथ्या है। यदि भेषमात्रको ही साधु माना जाय उनमें गुण न देखा जाय तो इस संसारमें भाड़ भी भेष धारण कर लते हैं, । साधु बन जाते हैं उनको भी साधु मानना पड़ेगा । इसलिए जिनमें ऊपर लिखे गुण हों, जो मोक्षके साधक हों उनको सच्चे साधु कहते हैं अन्यथा नहीं।
कबाचित् कोई यह कहे कि इन साधुओंमें सब हो तो ऐसे नहीं होते। इनमेंसे कितने हो पंचाग्नि तप । तपते हैं, कोई ऊर्ध्वबाहु ( ऊपरको मोह उठाये रखना ) ऊर्वपाव ( ऊपरको पैर उठाये रखना ) अघोशीश (नोचेकी ओर शिर लटकाये रहना ) आदि तपोंके द्वारा अनेक प्रकारका कष्ट सहते हैं। कितने हो फेवल दूध पोकर रहते हैं, कितने हो पत्ते, पुष्प-फल, कन्दमूल आदिका ही आहार करते हैं, अन्न नहीं खाते। कितने ही संयमी हैं । कितने ही मौनी हैं, कितने ही ध्यानी है, कितने ही भजनानन्दि हैं सो इन सबका निषेध क्यों है