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स्नानोपभोगरहितः पूजालंकारवर्जितः । मधुमासनिवृत्तश्च गुणवानतिथिर्भवेत् ॥१॥
सत्यार्जवदयायुक्तः पापारम्भविवर्जितः । उग्रोग्रतपसायुक्तः जानीयादतिथिर्बुवम् ॥२॥ वर्षासागर तिथिः पर्वोत्सवाः सर्वे स्यक्ता येन महात्मना।अतिथि तं विजानीयात् शेषं प्राणकं विदुः ।। [ १]
ऐसे अतिथि या साधु कहलाते हैं। बाकीके सब नाममात्रके साधु हैं सो सब व्यर्थ हैं।
इनके सिवाय श्वेताम्म राम्नायके चौरासो गचछ हैं उनमेंसे भी लोंकागच्छ निकला है तथा लोंकागच्छमेले भी ढूंढिया साधु तथा भीष्म साधु आदि अनेक गच्छ वा भेष निकले हैं सो वे सब साधु नाममात्रके नाम ! रखने योग्य साषु हैं। वे अपनी हो शास्त्रोंसे विपरीत चलते हैं इसलिये वे कभी साधु नहीं कहलाये जा सकते। इनका विस्तार पूर्वक वर्णन भद्रबाहु चरित्रमें तथा अन्य कितने हो शास्त्रों में किया है इनकी उत्पत्ति मावि सब लिखी है सो वहाँसे जान लेना चाहिये । इनके इतिहासका, आचरणोंका दिगम्बर आम्नायके विरुद्ध चौरासी चर्चाओंका तथा और भी अनेक प्रकारके इनके शिथिलाचारका वर्णन वसुनम्बिश्रावकाचारको वचनिका लिखा है वहाँसे जान लेना चाहिये। तथा कुछ इनका स्वरूप आगे भी लिखेंगे । यहाँ विस्तार होनेके हरसे । नहीं लिखा है।
इससे सिद्ध होता है कि पहले कहे हुए अट्ठाईस मूलगुणोंसे जो सुशोभित हैं और जो रत्नत्रयको धारण । करते हैं वे हो सच्चे साप हैं । अन्यथा केवल नाममात्रके धारो हैं । सो हो विष्णुपुराणमें लिखा हैमुडनात्श्रमणो नैव संस्काराद् ब्राह्मणेन च । मुनि रण्यवासिवाद बल्कलान च तापसः॥
इससे सिद्ध होता है कि केवल मुंडन करनेमें वन में, रहने आविसे साष नहीं हो सकता । कोई-कोई कहते हैं कि जन्मसे तो शुद्ध हो होता है फिर संस्कारसे ब्राह्मण होता है । जिसको विज कहते हैं । । यमा
जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्विज उच्यते ॥ सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि केवल संस्कारमात्रसे हो ब्राह्मण नहीं हो सकता और न केवल बनमें रहनेसे मुनि हा सकता है तथा भोजपत्र, वृक्षको छाल आदिका लंगोट लगाने वा छाल ओढ़नेसे तापसी नहीं हो सकता। यह तो केवल बाह्य भेष है परन्तु गुणोंके बिना केवल बाह्य भेष कार्यकारी नहीं है। सो हो। भारतमें लिखा है
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