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सागर
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अधिकारी हैं और केवल जातिमात्रका अभिमान करनेवाले निर्गुणी ब्राह्मण भगवान के शरीर के अषमभाग गुदाके भागी हैं ऐसा श्रीकृष्णने ही कहा है। यथा
सव ब्राह्मणो ह्यास्यमविधो मामकी मुदा ।
इस प्रकार भगवान शरीरमें भी जुवे जुदे भाग हैं उससे उत्पन्न हुए ब्राह्मण केवल नाममात्र से पूज्य नहीं होते किन्तु गुणसे हो पूज्य होते हैं। इसी प्रकार पहले कहे हुए आचार्य, उपाध्याय वा पाठक ऊपर कहे हुए गुणोंसे ही पूज्य हैं। केवल नामसे पूज्य नहीं होते ।
आगे पांचवां पद ' णमो लोए सम्बसाहूणं' ऐसा प्राकृत पद है। इसको संस्कृतमें 'नमो लोके सर्वसाधून्' अथवा 'नमः लोके सर्वसाधुभ्यः' बनता है । आगे इसकी निरुक्ति लिखते हैं। 'साधुकार्याणि साधयन्तीति साधवः' जो अच्छे कार्योंको सिद्ध करें उनको साधु कहते हैं । अथवा जो 'आत्महितानि साधयन्ति इति साधवः जो अपने आत्मा हितको सिद्ध करें उनको साधु कहते हैं। अथवा 'पंचमहाव्रतादि अष्टाविंशतिमूलोतरगुणादि साधुव्रताचरणं साधयन्ति इति साधयः' जो पंचमहाव्रत आदि अट्ठाईस मूलगुण या उत्तरगुणरूपी साधुओंके व्रतोंको वा धरणोंको सिद्ध करें उनकी साधु कहते हैं । इस प्रकार इसकी निरुक्ति है ।
साधु शब्दका अर्थ शोभनोक, अच्छा, योग्य, शिरोमणि और पूज्य है। जो शुभ कार्योको सिद्ध करें उनको साधु कहते हैं। अथवा निर्वाणको सिद्ध करनेवाले और मोक्ष प्राप्त करनेवाले ऐसे योग ध्यान वा भूलगुणाविक तपश्चरणको जो रात-दिन समस्त समय में अपनी आत्मामें सिद्ध करें उनको साधु कहते हैं । तथा जो छहों कायके समस्त प्राणियों में समताभाव धारण करें उनकी साधु कहते हैं । सो ही मूलाचार में लिखा हैनिर्वाणसाधकान् योगान् सदा युजन्ति ते साधवः । सर्वेषु भूतेषु समभावं प्राप्नुवन्ति ते साधवः ॥
प्राकृत भाषामें भी लिखा है
णिव्वाणसाध जोगे सदा जुजुति साधवो । समा सब्र्व्वसु भूदेसु तम्हा ते सव्वसाधवो ॥
इस प्रकार साधुपवकी निरुपित है ।
इस मध्यलोकके ढाईद्वीपमें अर्थात् दोनों समुद्रवर्ती तथा पांच भरत, पांच ऐरावत और पांचों महा
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