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हि शतङ् प्रत्यय होकर हंतु शब्द बनता है उसके प्रथमाका एक वचन हंता बनता है । इसका अर्थ मारनेवाला,
घात करने वाला होता है। सबका मिलकर अर्य होता है । "ज्ञानावरणादिचतुर्धातिकर्मारातीन हगीति अरिहंत । अथवा कर्मारातीन् हंतीति अरहत । अथवा अरीन् हंतीति अरिहंत । अर्थात् जो ज्ञानाधरणादि चारों धातिया कर्मरूपी शत्रुओंको मारे, धात करे वह अरहंत है । अथवा कमरूप शत्रुओंका घात करनेवाला अरहंत है । इस । प्रकार अरहंत शम्ब बनता है। इसकी द्वितीयाका बहुवचन अरिहंतुन् बनता है। अरिहंतु शब्दसे द्वितीयाको बहुवचन विभक्ति शस आतो है । अकारका लोप ही जाता है। पूर्व स्वरको कार्घ होकर सकारको नकार हो । जाता है। इस प्रकार अरिहंतुन बन जाता है । इसके पहले णमो शब्द है । "णम प्रभुत्वे शब्बे च" अर्थात् णम् । धातुका अर्थ प्रभुपना और शब्द है । चकारसे भक्ति करना, नम्र होना भी है। उससे नमः बनता है । अथवा नमः अव्यय है । उसका अर्थ नमस्कार करना होता है । नमःके संयोग, चतुर्थी विभक्ति हो जाती है। लिखा ई भी है । "नमः स्वस्ति स्वाहा स्वधा अलं वषट् योगे चतुर्थो" अर्थात् नमः स्वस्ति स्वाहा स्वधा असं वषट् इनके योगसे चतुर्थी हो जाती है । इसके संयोगसे अरहंत शब्दमें चतुर्थी विभक्ति होती है। ऐसा करनेसे 'नमोहंते। अथवा 'नमो अरिहते' वा 'नमो अरहते' बनता है । नमः अर्हते यहाँपर व्याकरणके नियमानुसार संधि होनेपर। (विसर्गको उ और अउ मिलकर ओ हो जानेपर ) नमो बन जाता है और नमोहंते सिद्ध हो जाता है प्राकृत भाषा नकार होता नहीं है। इसलिये 'गमो' ही रहता है । तथा प्राकृत भाषामें चतुर्थो विभक्तिमें अरहताणं ही बनता है यह प्राकृत भाषाका हो रूप है । इस प्रकार ‘णमो अरिहंताणं' अथवा 'गमो अरहंताग बनता है।
अरिहंत अथवा अरहंत पदमें चार अक्षर हैं इन चारों अक्षरोंका माहात्म्य शास्त्रोंमें बहुत कुछ वर्णन । किया है । ज्ञानार्णवमें लिखा है-- चतुवर्णमयं मंत्रं चतुर्वर्गफलप्रदम् । चतुःशतं जपन् योगी चतुर्थस्य फलं लभेत् ॥
म अर्थात् यह "अरहंत" मंत्र चार अक्षरोंका है। सो यह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंको देनेवाला है। जो योगी इसको चारसौ बार जप लेता है वह एक उपवासके फलको प्राप्त होता है। इस I प्रकार इसका अचित्य माहात्म्य है और अचित्य फल है ।
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