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इसी अरहंत शब्द 'अहं' नोक्ष की पते हैं।को अन्य मतमें परमतस्व कहते हैं । जो इसको जानता है वही तत्त्वोंका जानकार समझा जाता है। इस 'अहं' पदमें पहला अक्षर अकार है, अन्तमें हकार है । हकारके ऊपर रेफ व रकार है जो अकार हकारके मध्य में है । तथा अंतमें बिंदु वा अनुस्वार है । सोही लिखा है
अकारादिकारान्तं रेफमध्यं सर्विदुकम् । तदेव परमं तत्त्वं यो जानाति स तत्ववित् ॥
इस प्रकार यह दो अक्षरोंका अहं मंत्र है। यह मंत्र अरहंतमय है । ज्ञानका बीज है, समस्त संसारके द्वारा वंदनीय है और जन्म, जरा, मरणको दूर करनेवाला है। यह 'अहं' मंत्र अकार हकार रेफ बिंदु और कलासे बनकर "अ" ऐसा बना है। यह भुक्ति-मुक्तिका देनेवाला अमृतमयी किरणोंको बरसानेवाला है और सब मंत्रोंका राजा है। जो बुद्धिमान् अपनी नासिकाके अग्रभागमें, भ्रूलताओंके मध्यमें अथवा महान् उज्जवल तालु foot द्वारा अथवा निर्मल मुखरूपी कमलसे एकबार भी समस्त सुख देनेवाले इस मंत्र का उच्चारण करते हैं। अथवा इस मंत्र को अपने हृदयमें स्थिरतापूर्वक धारण करते हैं वे मोक्ष जानेके लिये मानों अपने साथ पाथेय ले जाते हैं। मार्ग खानेके लिये जो सामान साथ लिया जाता है उसको पाथेय कहते हैं । जो पुरुष इस महामंत्रराज अहंका ध्यान करता है वह अपने समस्त कर्म नष्ट कर मोक्ष सुखको प्राप्त होता है। इस दो अक्षर वाले अर्ह मंत्री ऐसी ही अपार महिमा है । सो ही ज्ञानार्णव में लिखा है-
ज्ञानबीजं जगद्वन्धं जन्ममृत्युजरापहम् । अकारादि हकारान्तं रेफबिन्दु कलान्वितम् ॥ भुक्तिमुक्त्यादिदातारं स्ववन्तममृतांशुभिः । मंत्रराजमिमं ध्यायेद्धीमान् विश्वसुखावहम् ॥ नासाने निश्चलं वा भ्रूलतांतरे महोज्वलम् । तालुरन्ध्रेण वा मातं विशन्तं वा मुखाम्बुजे ॥ सकृदुच्चारितो येन मन्त्रोयं वा स्थिरीकृतम् । हृदि तेनापवर्गाय पाथेयं स्वीकृतं परम् ॥ इस महामन्त्रराजं यः व्यायाति स कर्मक्षयं कृत्वा मोक्षसुखं प्राप्नोति ।
इस प्रकार अहं मन्त्रका स्वरूप है। इसकी निरुक्ति आदि सब पहले लिख चुके हैं। तथा अहं पदकी रिक्ति फिर भी लिखते हैं जो मोहरूपी शत्रुको अथवा भूषा, तृषा आदि समस्त दोषरूपी शत्रुओंको घात करनेके अहं अर्थात् योग्य हो उसको अहं कहते हैं अथवा सदाकाल कर्मरूपी रजको घात करनेके अहं अर्थात् योग्य
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