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सागर ३ ]
1 उपाध्यायोंको नमस्कार हो और इस लोकमें रहनेवाले समस्त साधुओंको नमस्कार हो। ऐसा मान्य अर्थ है। । अथवा नमः शब्धके साथ चतुर्थी विभकिन लगती है । इसलिा शरमन्मके लिए नमस्कार हो, सिद्धोंके लिए । नमस्कार हो इस प्रकार पांचों पदोंमें जोड़ लेना चाहिये।
अब अलग-अलग पदोंका अर्थ बतलाते हैं। पहला पद णमो अरहताण' अथवा 'णमो अरिहंताणं' है। । अर अथवा अरि शत्रुको कहते हैं। हंता मारनेवाले वा घात करनेवालेको कहते हैं इन दोनोंके मिलनेसे द्वितीया विभक्तिका बहुवचन सरिहंतु बनता है । जमोका अर्थ नमः है इनके मिलानेसे 'शत्रुओंको कर्मरूप वा रागद्वेष रूप शत्रुओंको नाश करनेवाले अरहन्त भगवानको नमस्कार करता हूँ' ऐसा अर्थ होता है ।
प्रश्न-पहले तुमने इस मन्त्रको बड़ी महिमा असलाई। इसको समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाला वा पापोंका नाश करनेवाला और समस्त मंगलोंमें मुख्य मंगल बतलाया है। लिखा भी है-- । एसो पंच णमोयारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसि पढम होइ मंगलं ॥
तथा "विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति" इत्यादि बहुतसी महिमा लिखी है। मंगलाचरणोंमें सबसे पहले इसका उच्चारण करते हैं सो उच्चारणमें सबसे पहले भगवानका नाम लेना चाहिये परन्तु यहाँपर सबसे पहले। । अरि अर्थात् शत्रु, वैरो वा रिपुका अमंगलकारो नाम लिया है। और फिर उसके बाद हंताणं शरद कहा है। ।
हताणं शब्द भी हन, हिंसायां अर्थात् हिंसार्थक, हन पातुसे बना है। इस प्रकार यह दूसरा शब्द भी रक्षा। वाधक नहीं है । घात वाचक दुःखरूप है । इसलिये यह निःसंबह शब्द नहीं है । संदेह रूप है।
समाषान--सेबसे पहले अन्य मतोंके द्वारा अरिहंताणं शब्दको मांगलिक पद सिद्ध करते हैं । यहाँपर, पहले पदमें जो अरहन्त पब है सो विशेषणरूप है। यथा--जो ज्ञानावरणादि कर्मरूपो अरि वा शत्रु अथवा रिपु वा द्वेषके हंता घातक है ऐसे जो सकल परमात्मा, सर्वश, वीतराग अरहन्त मावि एक हजार आठ नामोंसे ।
कहे जाते है अथवा अनंत नामोंसे कहे जाते हैं ऐसे धोकेवलजानो भट्टारक अरहंतदेवको अरहंत वा अरिहंत । कहते हैं । ऐसे अरहन्तदेवको नमस्कार हो ऐसा प्रथम पदका अर्थ है सो ही लिखा है । "कारातोन् हंतीति । अरहन्त अथवा अरीन हंसीसि अरिहंत" इस प्रकार व्याकरणके सूत्रसे इसको निरुक्ति है।
कदाचित् इस शम्मको दूषित कहोगे और अरि तथा धात रूप होनेसे अमंगल रूप बतलाओगे तो
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