________________
इसका उत्तर यह है कि इसमें 'अरहंत' ऐसे चार अक्षर हैं। इनमें भी पहला अक्षर है। यह 'अ' अब रक्षणे । अथवा अब रक्ष पालने इस धातुसे कृवरतीय प्रत्यय लगकर बनता है। जिसका अर्थ रक्षा करना वा पालन ।
करना होता है। फिर भला यह अमंगलरूप कैसे हो सकता है ? सिागर cr]
इसके सिवाय एक बात यह है कि यह 'अ' वर्णावि है वर्णोका प्रारम्भ इसीसे होता है इसलिये भी यह मांगलिक है । मंत्रोंमें अ को अनाहत मंत्र संज्ञा है। जो सज्जन इस मंत्रका स्थिरीभूत होकर अभ्यास करते हैं, शांत भावोंको प्राप्त करते हैं और वे इस संसार सागरसे पार हो जाते हैं । जो सज्जन मनको निश्चल कर इस 'अ' ध्यान करते हैं वे निर्मलताको प्राप्त होते हैं तथा पोछ विषयोंसे उत्पन्न हए मनके विकारोंको । नष्ट कर एक क्षणमें साक्षात् मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, इसके ध्यान करनेसे मणमादिक सब सिद्धियां प्राप्त होती है। बैत्य, वानव आदि सब इसको सेवा करते हैं। इससे आज्ञा और ईश्वरता सब सिख हो जाती है । तथा अनेक क्लेशोंसे भरे हुए संसाररूपी वनसे पार हो जाते हैं और शीघ्र हो मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा केवल यह पहला अक्षर 'अ' है । सो हो झानसमुद्र में लिखा है-- विदुहीनं कलाहीनं रेफद्वितीयवर्जितम् । अनक्षरस्वमापन्नमनुच्चाय्यं विचिंतयेत् ॥१॥ चन्द्रलेखासमं सूक्ष्म स्फुरन्तं भानुभास्करम् । अनाहिताभिधं देवं दिव्यरूपं विचिंतयेत् ॥२॥
अस्मिन् स्थिरीकृताभ्यासाः शांतिभावमुपाश्रिताः।
अनेन दिव्यपोतेन नीत्वा जन्माप्रसागरम् ॥ ३ ॥ तदेव च पुनः सूक्ष्मक्रमात् बालाग्रसन्निभम् । ध्यायेदेकाग्रता प्राप्य कतु चेतः सुनिश्चलम् ॥ ततोपि गलिताशेषविषयकृतमानसः । अध्यक्षमीक्षते साक्षात् जगज्योतिर्मयं क्षणे ॥५॥ सिद्धयति सिद्धये सर्वा अणिमाद्या न संशयम् । सेवा कुर्वन्ति दैत्याद्या आज्ञैश्वर्यं चजायते ॥ क्रमात् प्राच्याव्य लक्षेभ्यःअलक्षे निश्चलं मनः।दधतोऽस्य स्मरन्लतज्योतिरत्यक्षमक्षयम् ।। एतत्तत्त्वं शिवाख्यं वा समालंब्य मनीषिणः। उत्तीर्य जन्मकान्तारमनंतक्लेशसंकुलम् ॥८॥
इस प्रकार एक अकार अक्षरका स्वरूप ऊपर लिखे श्लोकोंसे लेना चाहिये। ऊपर इन्हीं श्लोकोंका । थोडासा सामान्य अर्थ लिखा है । इससे सिद्ध होता है कि यह अकार मांगलिक और परमेश्वरमय है।
मायामासासाचा