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है शुद्ध होते हैं। वही प्रायश्चित्त पोड़ा-सा यहाँ लिखते हैं। मुनियोंके प्रायश्चित्तकी विधि ग्रहस्थके समान नहीं
है किन्तु उसको विधि अलग ही है और वह इस क्रमसे है। पसिागर म प्रायश्चित, विशुद्धि, मत हरण, पापनाशान्त और छेवन ये पांच भेव है। उसमें से नौ णमोकार मंत्रका ३४२ एक कायोत्सर्ग होता है । बारह कायोत्सर्गका एकसौ आठ णमोकार मन्त्रोंका एक जप होता है। एवं जपका
फल एक उपयास है । यहाँपर उपवास शब्दका अर्थ यही है । आचामल, निविडि, गुरुनिरत, एक स्थान, उप-है । वास ये पांचों मिलकर एक कल्याणक होता है। यदि कोई मुनि इस कल्याणकके पांचों अंगोंमेसे आचाम्ल पाँच,
निविड पाँच वा उपवास पांच इनमेंसे कोई एक कर लें तो वह लधु कल्याणक कहलाता है । यदि पांचों कल्याणकोंम में कोई एक कम करे तो उसको भिन्न कल्याणक कहते हैं । यदि वे आचाम्ल, गुरु निरत, एक स्थान, निविड ।
इनको करें तो अर्बकल्याणक कहा जाता है। ऐसा सब जगह समझ लेना चाहिये। सो हो लिखा हैपायच्छित्त विसोही मलहरणं पावणासणं छेदो।पंचाया मूलगुणं मासियसट्ठाण पंचकल्लाणे॥ एकेहिवि कायोस्सग्गे णव णवकारा हवेति वारससु।
सय अट्टोत्तर भेदे भवन्ति उववासयं सफलं ॥ ! आयं विलण वियडि पुरिमंडल सेयट्ठाणमुववासं । कल्लाणमे गमेदे हि पंच हि पंचकल्लाणं॥ आयंविलेण पउणं खमण पुरिमंडले तहापादो। एकट्ठाणे अद्धं णिवि पडिए पराभेव ।।
यहाँपर मूलगुण मुनियोंके अलग हैं और श्रावकोंके अलग हैं उसी प्रकार उत्तरगुण भी अलग-अलग हैं। उनको क्रमसे बतलायेंगे।
आगे अहिंसा महायतमें जो दोष लगते हैं उनको शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त कहते हैं। यदि किसो मुनिसे बारह एकेन्द्रिय जीवोंका घाल अज्ञानपनेसे हो जाय तो ऊपर लिखा हुआ (बारह कायोत्सर्गका) एक उपवास करना चाहिये। यदि छः, वो इंद्रिय जीवोंका घात हो जाय तो भी ऊपर लिखा एक उपवास करना चाहिये।
यदि चार, तेइन्द्रिय जीवोंका घात हो जाय तो भी एक उपवास करना चाहिये। यदि सीन, चतुरिन्द्रिय जीवोंका ॥ घात हो जाय तो भी एक उपवास करना चाहिये। यदि छत्तीस एकेन्द्रिय जीवोंका धात हो जाय तो प्रतिक्रमण ।
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