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है। व्यभिचारिणी स्त्री स्नानाबिक कर लेने पर भी शुद्ध नहीं होती। वह परपुरुषका त्याग कर देने मात्रसे हो!
शुद्ध हो सकती है। तो हो लिखा है-- पर्चासागर त्रिपक्षं जायते सूता ऋतुधात्री दिनत्रयम् । परजनरता नारी यावज्जीवं न शुद्ध्यति ॥ [ ३६८ ] कितने ही अधर्मी इन तीन दिनों में भी सामायिक प्रतिक्रमण तथा शास्त्रके स्पर्श आदि कार्योको करते है
है ऐसे लोग उससे होनेवाले अविनय और महापापको नहीं मानते। पवि कोई इन कामोंके करनेके लिये निषेध करता है तो उत्तर देते हैं कि इस शरीरमें शुद्ध कार्य है ही था ? TM म सार शा बहते रहते हैं यदि किसीके गांठ वा फोड़ा हो जाता है और वह पककर फूट जाता है उसी प्रकार स्त्रियोंका यह मासिकधर्म है।। इस प्रकार कहकर वे लोग मानते नहीं परन्तु ऐसे लोग आशाबाह्म हैं महापातको वा अनाचारी हैं।
रजस्वला स्त्रियोंके स्पर्श, अस्पर्शका, उसकी भूमिको शुद्धिका तथा संभाषण आदिके दोषोंका और उनके शुद्ध करनेका वर्णन विशेषकर त्रिवर्णाचार आदि प्रायश्चित्त शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये। यहां संक्षेपसे | लिखा है।
कितने ही पापी अपनी लक्ष्मीके मवमें आकर रजस्वला स्त्रियोंको भूमिपर नहीं सोने देते किन्तु उन्हें । पलंगपर हो सुलाते हैं । यदि कोई इसका निषेध करता है तो अपनी राजरोतिका अभिमान करते हुए नहीं । मानते हैं किन्तु उसी तरह चलते हैं परन्तु ऐसे लोग बड़े अधर्मी और पातकी गिने जाते हैं । जो मुनि होकर ।
घोड़ेपर चढ़े, जो स्त्री रजस्वला अवस्थामें हो पलंगपर बैठे या सोवै तथा जो गृहस्थ शास्त्रसभामें बैठकर । बातें करें ऐसे पुरुषोंको देखकर ही वस्त्र सहित स्नान करना चाहिये । भावार्य-जब ऐसे लोगोंको देखनेसे हो
देखनेवालोंको वस्त्र सहित स्नान करना पड़ता है तो फिर उन लोगोंके पापको तो बात ही क्या है अर्थात् वे ॥ बहुत भारी बोषके भागी होते हैं सो ही लिखा है-- अश्वारूढं यतिं दृष्ट्वा खटवारूढा रजस्वलाम्।शास्त्रस्थाने गृहवक्तन् सचेल स्नानमाचरेत्।।
१६१-चर्चा एकसौ इक्यानववीं। प्रश्न-यदि रजस्वला स्त्रीके पास बालक हो तो उसके स्वास्पर्शको शुद्धि किस प्रकार है ? समाषाम-यदि कोई बालक मोहसे रजस्वला स्त्रीके पास सोवै, बैठे वा रहे तो सोलह बार स्नान