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पर्यासागर [ ३५१]
Paraanaamarnationakalaचय
पंचकल्याणक है । यदि कोई मुनि अपने सुखके लिये अनेक बार कंदादिकका भक्षण करें तो उनको दीक्षा भंग हो जाती है । सोही लिखा है--
अण्णाणि ण वाहि दप्पे भक्खण कंदादि एग वहुवारं।
काउस्तग्गुववासो खमणणय गच्छमूलगुणमूलं ॥ यदि मुनिराजके आहार ले लेनेपर दाता कह कहे कि भोजनमें जंतु था उसको दूर कर हमने आपको आहार दिया है नहीं तो अंतराय पड़ जाता, इस प्रकार सुन लेनेपर उसका प्रायश्चित प्रतिक्रमण पूर्वक एक उपचास है । यदि आहार लेते समय थालोके बाहर ( गीली हड्डी आदि भारो) अन्तराय दिखाई पड़े तो। उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमणपूर्वक तीन उपवास है। यदि भोजनमें हो ( गोली हड्डी, चमड़ा आदि भारी) अन्तराध आ जाय तो प्रतिक्रमण पूर्वक चार उपवास करना चाहिये । सो ही लिखा हैवट्ठतराय जादे सुदं हि तु तं स होइ खमणं खु । स भुजमाण दिद्वे छट्टट्ठमुट्ठपडिकमणं ।
यदि कोई मुनि तीन, चार घड़ी दिन चढ़नेसे पहले अथवा गोसर्जन समयमें एकबार आहार करें तो । उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है। यदि कोई मुनि तोन, चार घड़ी दिन चढ़नेसे पहले अथवा गोसर्जन समयमें। र अनेक बार भोजन करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि कोई मुनि रोगके वशीभूत होकर एकबार A अपने हायसे अन्न बनाकर भोजन करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। इसी प्रकार यदि कोई मुनि किसी रोगके वश होकर कई बार अपने हाथसे भोजन बनाकर आहार करें तो उसका प्रायश्चित्त तीन उपवास है। यदि निरोग अवस्थामें कोई मुनि एकबार अपने हाथसे बनाकर भोजन करें तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। यदि निरोग अवस्थामें कोई मुनि अनेक बार अपने हाथसे बनाकर आहार करें तो उनका महाव्रत भंग हो जाता है । सो ही लिखा हैआधा कम्मेणादो गलाण पीरोगए बहुवारे । उववास छट्टमासे मूलं पय होइ मलहरणं ।।
इस प्रकार एषणा समितिका प्रायश्चित्त बतलाया । यदि कोई मुनि विनमें काठ, पत्यर आदि पदार्थोंको हटावे वा दूसरी जगह रक्खे तो उसका प्रायश्चित्त ।
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