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सागर [ ६५ ]
आदि शृंगारके सब साधनोंका त्याग कर देना चाहिये । तीन दिन तक उसको अपने वेव, गुरु, राजा और अपने कुलदेवताका रूप दर्पण में भी नहीं देखना चाहिये तथा न इनसे किसी प्रकारका सम्भाषण करना चाहिये। इन स्त्रियोंको तीन दिन तक किसी वृक्षके नीचे अथवा पलंगपर नहीं सोना चाहिये तथा बिनमें भी नहीं सोना चाहिये । उसे अपने मनमें पंच णमोकार मंत्रका स्मरण करना चाहिए। उसका उच्चारण नहीं करना चाहिये केवल मनमें चितवन करना चाहिये। अपने हाथमें वा पसलमें भोजन करना चाहिये। किसी भी धातुके बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिये । यदि वह किसी तांबे, पोतल आदिके पात्र में भोजन करे तो उस पात्रको अग्निसे शुद्ध करना चाहिये। चौथे दिन गोसगं कालके बाद स्नान करना चाहिये । प्रातःकालसे लेकर छः घड़ो गोसा कहा जाता है। लो दिन स्नान करनेके बाद वह स्त्री अपने पतिके और भोजन बनानेके लिये शुद्ध समझी जाती | देव पूजा, गुरु-सेवा तथा होम कार्यमें वह पाँचवें दिन शुद्ध होती है। सो ही त्रिवर्णाचारमें लिखा है
काले ऋतुमती नारी कुशासने स्वपेत्सती । एकांतस्थानके स्वस्था जनदर्शन वर्जिता ॥ १० ॥ मौनताथ वा देवधर्मवार्ताविवर्जिता । मालतीमाधवीवल्लीकुंदादिलतिकाकरा ॥११॥ रक्षेच्छीलं दिनं त्रीणि चैकभक्त विगोरसम् | अंजनाभ्यंगस्नान गंधमंडनवर्जिता ॥ १२ ॥ देवं गुरु ं नृपं स्वस्य रूपं च दर्पणेपि वा । न पश्येत्कुलदेवं च नेव भाषेत तैः समम् ॥ १३ ॥ वृक्षमूले स्वपेन्नैव खट्वाशय्यासनं तथा । मंत्रं पंचनमस्कारं जिनस्मृतिं स्मरेद् हृदि ॥ १४॥ अंजलावश्नीयात्पर्णपात्रे ताम्रे च पैत्तले । भुक्त्वा चेत्कांश्यजे पात्रे शुद्धयति तत्तु वह्निना ।। १५ चतुर्थे दिवसे स्नायात् प्रातः गोसर्गतः परम् । पूर्वाह्न घटिका षट्कं गोसर्ग इति भाषितः ।। १६ । शुद्धा भर्तुश्चतुर्थेह्नि भोजनं रंधनेऽपि वा । देवपूजागुरूपास्तिहोम सेवासु पंचमे ॥ १७ ॥
रजस्वला स्त्रियोंके आचरण इस प्रकार बतलाये हैं। जो स्त्रियों रजोधर्मके तीन दिनमें अंजन लगाती हैं, उबटन करती हैं, पुष्प माला पहनती हैं, गंध लगाती है, तेल मर्दन करतो हैं और ऊंचे स्वरसे बोलती है उनका गर्भ सदोष और विकृत रूप हो जाता है।
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