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सागर
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तिरियादि दुवस्सग्गे अबंभं सेविदं समूलगुणं । मूलट्ठाणं दप्पे तिरयण सेविसस्स जणणादो ॥ यदि कोई महाव्रतो मुनि किसी आजकाले एकवार मैथुन सेवन करे तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण सहित पंचकल्याणक है । यदि कोई मुनि अनेक बार किसी आर्जिकासे मैथुन सेवन करे तो उसका महाव्रत भंग हो जाता है। फिर दीक्षा लेनेसे यह शुद्ध होता है। यदि इस बातको बहुतते लोग जान लें या देख लें और फिर भी वह न छोड़े तो फिर उसको उस देशसे निकाल देना चाहिये । सो ही लिखा है-आलासं संगोण मूलगुण मूलठाण बहुवारं । जणणादं हि विवेगो देसादो शिद्धाउण होदि || इस प्रकार चतुर्थ ब्रह्मचर्यं नामके महाव्रतका प्रायश्चित बतलाया। आगे अपरिग्रह महाचलका प्रायश्चित्त
कहते हैं ।
यदि एकबार उपकरणादिक, पदार्थोंके संग्रह करने की इच्छा करें, उन मुनिको एक उपवास प्रायश्चित्त करना चाहिये । यदि एकबार प्रेमपूर्वक उपकरणाविक पदार्थ रक्खें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि नित्य प्रति सवा किसी उपकरणाविक पदार्थके रखनेको इच्छा करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि और लोगोंसे दान दिलावें तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक । यदि सब परिग्रहोंको रक्खे तो उसका महाव्रत भंग हो जाता है । यदि वह फिरसे दीक्षा ले तो शुद्ध हो सकता है। सो हो लिखा है-उवयरण ठवण लोहिदि णमुहे दाणमण विखादे । सग्गग्गइणखमणं बट्टट्ठ मूलगुणल घति ॥
इस प्रकार महाव्रतका प्रायश्चित बतलाया ।
जो मुनि रोगके वश होकर एक रातमें चारों प्रकारके आहारका अन पान करें तो उसके प्रायश्चितमें तीन उपवास करना चाहिये । यदि रोगके वशीभूत होकर एक जल-ग्रहण करें तो उसका प्रायवित्त एक उपवास है। यदि किसीके उपसर्गसे कोई मुनि रातमें भोजन पान करें तो उसका प्रायश्चित पंचकल्याणक है । यदि कोई मुनि अपने दर्पसे अनेक बार भोजन-पान करें तो फिर उनका महाव्रत भंग हो जाता है। वे फिर दीक्षा लेनेसे शुद्ध हो सकते हैं। सो ही लिखा हैरतिगलाणमभुत्ते चउविह एगं हि घट्टखमणं तु । उवसग्गो सट्टाणं चरियाए मूलगुणे भुत्ते ॥
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इस प्रकार रात्रि भोजन त्याग नामके मूलगुणका प्रायश्चित है ।
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