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पर्यन्त समस्त तीर्थंकरोंने, वृषभसेन गणधरको आदि लेकर गौतम पर्यन्त समस्त गणधरोंने, समस्त सामान्य
केवलियोंने और अनेक ऋद्धियोंको धारण करनेवाले अनेक महाव्रती साधुओंने इन अभिषेक, महाभिषेक, पुष्प, पा सागर फलसे पूजा करने आदिका उपदेश दिया है तथा ऊपर लिखे अनुसार सम्यग्दर्शनके अंग पालन करनेका उपदेश २८२ दिया है तो फिर इन सब पुण्य कार्योंका निषेध करनेवाला उन तीर्थस्थरादिकोंसे भी बड़ा और पूज्य मान लेना।
चाहिये जो तीर्थंकरोंके वचनोंका भी उल्लंघन कर झूठी निन्दा करता है ? जो लोग ऐसे निन्दकोंकी बात मानते ! हैं वे अनन्त संसारी हैं। भगवानको आशाके घातक है भगवानको आशाका पालन करनेवाले नहीं हैं।
इतना समझ लेनेपर भी कदाचित् कोई यह कहे कि "अभिषेक तो हम भी करते हैं हम उसका निषेध थोड़े ही करते हैं हाँ, अन्तर केवल इतना है कि हम उन कलशोंको भगवानके मस्तकपर नहीं बोलते है उनके सामने ढोलते हैं।" सो यह कहना भी ठीक नहीं है पोंकि नगालाको वश मालभित करना किस शास्त्रमें बतलाया है।
कदाचित् कोई यह कहे कि भगवानके मस्तकपर कलशाभिषेक करना कहाँ बतलाया है तो इसका उत्तर यह है कि मस्तकपर कलशाभिषेक करता तो सब पाठों में लिखा है। अभिषेकका अर्थ हो उन कलशोंके
तकपर ढालना है। अभिषेकका अर्थ उस जलको दर डाल देना नहीं है। तुम लोग जो प्रतिदिन पूजा पाठ पढ़ते हो, मंगल पढ़ते हो उसमें प्रतिदिन पढ़ते हो "सहस अठोत्तर कलशा प्रभुजीके शिर ढुले" सो क्या यह पाठ सूठा है ? या इसका निषेध करनेवाले आप लोग झूठे हैं दोनोंमें कौन झूठा है सो आप लोग हो बतलाओ ।
कदाचित् यह कहो कि यह पाठ और यह रोति तो जन्म समयकी है, तपकल्याणक वा ज्ञानकल्याणक समयकी नहीं है । तो इसका उत्तर यह है कि जिनप्रतिमामें क्या जन्मकल्याणक नहीं है और यदि जन्मकल्याTणक नहीं है तो क्या तपकल्याणक है ? अथवा ज्ञानकल्याणक है ? और यदि तप कल्याणक वा ज्ञानकल्याणक
ही है जन्मकल्याणक नहीं है तो फिर पहलेकी जन्मसमयको सरागताको रोति क्यों पड़ते हो? और उसके लिये द्रष्य क्यों चढ़ाते हो ? गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण इन पांचों कल्याणकों सहित क्यों पूजते हो । यह
चतुराई तो अजानकारोंकी-सी है । इसलिये जो भगवानको आमाको माननेवाले सच्चे सम्यग्दृष्टी अवावान हैं । वे अपनी बुद्धिकी चंचलताको रोककर देव, शास्त्र, गुरुके वचनोंपर बढ़ श्रद्धान रखते हैं तथा वे ही अपने कार्यमे ।
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