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ततः शक्रेण दिकपाला लोकपाला यथाक्रमम्।
संस्थाप्य पूजिता अध्यः सर्वशांतिकहेतवे ॥ ७॥ नर्चासागर जंतूविष्टं जलं चात्र तस्माचक्षीरसागरात् । ममानीय जिनो देवः तेन संस्नाप्यते मया ॥ [ ३०८]
यहाँ इन्टने भी ऐसा किया सो क्या इसके सम्यक्त्व नहीं है जो अपने सेवकोंका भी अर्घ देकर पूजन किया।
श्रीमद् आदिपुराणके बालोसवें पर्वमें क्रियाओंके मन्त्राधिकारमें पीठिका मन्त्र आदि मंत्रों में जिनेन्द्रदेषके सिवाय अन्य देवोंको भी पूजना लिखा है । यथा
"सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्यनिर्वाणपूजा अग्नीन्द्राया स्वाहा" इति पीठिका मंत्रः। "सम्यग्दृष्टेशानभूत सरस्वति स्वाहा' इति जातिमंत्रः। “ग्रामपतये स्वाहा” इति निस्तारमंत्रः। “अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा”। श्रावकाय स्वाहा । देवब्राह्मणाय स्वाहा । सुब्राह्मणाय स्वाहा । सम्यग्दृष्टे भूपते नगरपते कालश्रवणयक्षाय स्वाहा” इति ऋषिमंत्रः । "सम्यग्दृष्टे कल्पपते दिव्यमतें धज्रनामाय स्वाहा” इति सुरेंद्रमंत्रः।
इस प्रकार और भी परम मन्त्र राजादिक मन्त्रों में अग्नींद्र, कालश्रमण, यक्ष तथा इन्द्र आविका पूजन ! है । सो सब विचार कर लेना चाहिये।
यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि यह सब लिखा है सो तो सब ठीक है परन्तु गोम्मटसार, त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों में तो नहीं लिखा है। तो इसका समाधान यह है कि प्रथम तो गोम्मटसारमें यह प्रसंग हो नहीं आया है। पयोंफि जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा, पूजा, प्रतिष्ठा, श्रावकधर्म आदिका वा प्रथमानुयोगका जहाँ । वर्णन है यहाँ यह सब कयन किया है । इसलिये यदि एक गोम्मटसारमें नहीं है तो जैनधर्मके अन्य शास्त्रोंमें तो।
है । यदि एक गोम्मटसारको ही मानोगे अन्य शास्त्रोको नहीं मानोगे तो गाम्मटसारके बिना अन्य सब शास्त्र १ अप्रमाण मानने पड़ेंगे । फिर उन शास्त्रोंका स्वाध्याय श्रद्धान आदि करना भी नहीं बन सकेगा।
कदाचित् आपको ऐसा ही हट है कि त्रिलोकसार, गोम्मटसारके बिना हम और ग्रन्थोंका श्रवान नहीं करते तो देखो त्रिलोकसारमें अकृत्रिम चस्यालयों में विराजमान श्रीजिनप्रतिमाओं का स्वरूप दिखलाते समय लिया।