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वर्षासागर
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पंचपंचदिनान्येवं प्रध्वस्ताशेषकल्मषम् कलशैरुदितैरती ः स्नापयेत्पापशांतये ॥ १५॥ अष्टोत्तरशतं कुर्यान्मूलमंत्रेण चाहुतीः । अभिषेकदिनेष्वार्यस्तदन्ते तद्विधिक्रमात् ॥ १६॥
इस प्रकार पाठ है। इसके सिवाय जो अपने मनसे और अनेक प्रकारको विधि करते हैं सो सब शास्त्र बाह्य है । मनोनुकूल प्रमाण नहीं है। जो पुरुष बिना शास्त्रोंके अपनी बुद्धिके अलसे अपने मनको कल्पनानुसार कहते हैं वे पुरुष बाचाल गिने जाते हैं इसलिये उनके वाक्य अप्रमाण माने जाते हैं ।
कदाचित् कोई यह कहे कि यह भी तो शुभ कार्य ही बतलाया है तो इसका उत्तर यह है कि प्रायfreeकर्म चिकित्साशास्त्र अर्थात् रोग दूर करनेके लिए बधाईका देना, लग्न मुहूर्त गणित शास्त्र आदि ज्योतिषशास्त्र और धर्मशास्त्रका निर्णय सब बातोंको इनके अलग-अलग शास्त्र देखे बिना जो अपने मनसे हो बुद्धिमान बनकर अपने मनके अनुसार कहता है अथवा तू ऐसा कर ले इस प्रकार दूसरोंसे कहता है उसको लौकिक शास्त्र में ब्रह्मघाति बतलाया है । अर्थात् लौकिक नीति अनुसार उसे हत्यारा वा पानको कहते हैं । सो ही लिखा है---
प्रायश्चित्तं चिकित्सां च ज्योतिषं धर्मनिर्णयम् । विना शास्त्रेण यो ब्रूयात्तमाहुर्ब्रह्मघातकम् ॥
dus शास्त्र में भी लिखा है कि जो आचार्य ( प्रायश्चित्त आदि धर्मशास्त्रका निर्णय देनेवाला ) ज्योतिषी, राजा और वैद्य ये चारों हो पुरुष अपने-अपने कामोंको बिना शास्त्र देखे केवल अपने मनसे वा ham बुद्धि बलसे करते हैं उनको मानों ब्रह्माने यमके दूतोंके समान केवल प्रजाको मारनेके लिये हो इस पृथ्वीपर बनाया है । सो ही लंघन पथ्यनिर्णयशास्त्र में लिखा है-
आचार्यदेवज्ञनृपाश्चत्रैद्याः ये शास्त्रहीना स्वयन्ति कर्म ।
देवैः पृथिव्यां यमदूतरूपाः सृष्टाः प्रजासंहरणाय नूनम् ॥
यहाँपर आचार्य शब्दसे प्रायश्चित्त देनेवाला वा धर्मशास्त्रका उपदेश देनेवाला समझना चाहिये । १८३ - चर्चा एकसौ तिरासवीं प्रश्न- यदि कोई पुरुष प्रायश्चित्तकी विधि न करे तो क्या हो ?
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