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चर्चासागर [ २७४ ]
और भूख न मिटनेसे उसके प्राणोंको पीड़ा होती है । जो खानेकी आशा लगी हुई थी वह निराश हो जाती है। ऐसी हालतमें उस जीवके छुड़ानेका फल वयारूप होता है ? या हिसारूप ? इस विषय में आप लोगोंको । क्या सम्मति है ? जीव तो दोनों में है अन्तर केवल इतना है कि एक स्थानपर तो रागभाव और करुणासे । बचाया जाता है और दूसरी जगह द्वेष-भावसे तथा क्रोधपूर्वक हिंसा करनेके भावसे प्रहार किया जाता है और उसके खाने-पोने में अन्तराय किया जाता है और इसमें प्रत्यक्ष हिसारूप कार्य होता है। मोक्षशास्त्रमें भी लिखा है-"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" अर्थात् प्रमाद वा कषायके योगसे जो प्राणोंका वियोग किया जाता है। उसको हिंसा कहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि केवल जीवोंका घात करनेसे ही हिंसा नहीं होती किन्तु अपने परिणामोंके अनुसार हिंसा होती है।
मानसामान्यातलमाता
इसी प्रकार जीवोंके काम-भोगादिकके कार्योंमें वान, लाभ, वीर्याविकके लाभ होनेपर विघ्न करना, रोकना सो अन्तराप कर्मके आस्रवका कारण है सो ही लिखा है-"विधनकरणमन्तरायस्य" अर्थात् दान, लाभाविकमें विघ्न करना अन्तराय कर्मके आसवका कारण है । इसी प्रकार दूसरेके अन्न-पानादिकका रोकमा अहिसाणुव्रतका अतिचार है । सो ही लिखा है-"बन्धबधच्छेवातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः" अर्थात् "बांधना, मारना, छेदना, अधिक भार लावना और अन्नपानका निरोध करना ये पांच अहिंसाणुव्रतके अतिचार हैं" इन दोनों बातोंका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण तुम लोगोंके किस प्रकार है ? कदाचित् यह कहो कि जोधोंका बचाना केवल उनकी दयाके लिये है उससे चाहे दूसरे जीवको अन्तराय हो या भूखा मरना पड़े अथवा बचाने में किसीका धात भी हो जाय तो भी दयारूप परिणाम होनेके कारण उससे पुण्यबंध हो होता है। इसी प्रकार अभिषेक करनेमें, पूजा करनेमें तया और भी ऊपर लिखे हुए कार्योमें जो थोड़ा-सा आरम्भजनित पाप होता है वह भी पुण्य सम्पावनके लिये है ऐसा ही श्रद्धान, ज्ञान, आचरण आपको करना पड़ेगा। कदाचित् इन अभिषेक वा पूजाविकके कार्यो में हिंसाविक पाप मानोगे या इनको कर्मबंधके कारण मानोगे तो फिर वह श्रद्धान, ज्ञान, आचरण, तेरहपंथो, दूढ़िया साघुओंका हो जायगा । एक जगह बाईस बोलेके टूढ़िया साधु थे। उनमें एक भीष्म नामका टू दिया था। वह अपने गुरुसे लड़ पड़ा और लड़कर उसने अपने नामका एक जुवा हो पंय चलाया। धीरे-धीरे उसके साथ बारह लिया और आ मिले । इस प्रकार उन तेरह भावमियोंका पंथ तेरहपंच