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सागर २७२]
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___ अर्थ-जो कोई संशय रखनेवाला जोष जिनपूजा आदि कार्यो सुगन्धित मनोक्ष पुष्पोंको गूंथो हुई मालासे श्रीखंडाविक सुगन्धित पूर्णको बनी हुई धूपको अग्नि प्रक्षेपण करनेसे तथा अनेक दीपकोंको जलाकर आरती करनेसे पूजामें पाप बतलाता है तथा जल, गंध, अक्षत, नैवेद्य, फल, वृद्ध, दर्भ आदि बड़ानेमें अयवा पंचामृताभिषेक, महाभिषेक, रात्रिपूजा, फोतिकोत्सव आदिको प्रभावनामें, तोर्थयात्रा, रथयात्रा, जिनबिब बनवाना, जिनालय बनवाना, प्रतिष्ठा करना, शान्तिकपूजन, अष्टाल्लिक, महामह, इन्द्रध्वज, कल्पवृक्षादि, हवनादिकके कार्य आदि शास्त्रोक्त धर्मकार्योंमें पाप बतलाता है उसे इस प्रकार समझाना चाहिये कि हे वत्स! भगवानकी पूजा करनेसे अनेक जन्मके उपार्जन किये हुये बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं फिर क्या उसी पूजासे । उस पूजा करनेवालेके इस जन्मके किये हुये पाप अथवा उस पूजा, रथयात्रा आवि धर्मकार्योसे उत्पन्न हुये कुछ। थोडेसे पाप नष्ट नहीं हो सकते ? अवश्य नष्ट होते हैं जिस प्रकार प्रलयकालको जिस प्रबल पवनसे पर्वतके समान बड़े-बड़े हाथो उड़ जाते है उस पचनसे क्या जरा जरासे मच्छर नहीं उड़ सकते? अवश्य उड़ जाते हैं। ऐसा समझकर ऊपर लिखे अनुसार जिनवाणीकी निन्दा कर अनंत संसारका बंध नहीं करना चाहिये।
दूसरी बात यह है कि जिस विषसे यह प्राणी मर जाता है वही विष यदि अच्छी तरह पकाकर शुस कर लिया जाय और कालीमिरच आदि अच्छी तरह औषधियोंके साय खाया जाय तो उसो विषसे रोग दूर हो जाते हैं और खानेवाला मनुष्य मरनेसे बच जाता है। उसी प्रकार कुटम्बको पालन करनेके लिये अथवा भोगोपभोम सेवन करनेके लिये जो पाप किये जाते हैं वे तो पाप हैं परन्तु दान, पूजा आदि धर्मकायाँमें जो कुछ थोड़ासा पाप होता है वह पाप उन धर्म कार्योंसे नष्ट हो जाता है तथा अन्य इकटे हुए सब पापोंको भी नष्ट कर देता है। ऐसे श्रीवसुनंदिके वचन हैं। जिन जीवोंकी होनहार गति अच्छी नहीं है ऐसे जीव ऊपर लिखे आचार्योंके वचनोंको नहीं मानते हैं।
प्रश्न-हम लोग ऊपर लिखे कार्योको छोड़कर जो कुछ करते हैं वह यत्नपूर्वक आरम्भको घटा-घटा कर थोड़ेसे ही आरम्भसे करते हैं तुम्हारे समान बहुतसा आरंभ नहीं करते। परन्तु इसका उत्तर वा समाधान यह है कि श्रीजिनमूर्तिका नम्र, महाव्रतरूप और बोतरागस्वरूप है। उसमें अट्ठाईस मूलगुण तथा चौरासो लाख उत्तरगुण सबका समावेश है, उसमें सब पापोंका त्याग है तथा स्नानका त्याग तो मुल्यता है। फिर
मान
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