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। तीन वर्षके पुराने जौका नाम अज बतलाया था। ऐसे जोको धीमें मिलाकर होम करनेका विधान बताया !
था । पशुका होम करना तो अत्यन्त निन्दनीय और मिथ्या है। जैसा व्याख्यान तेरे पिता कहा करते थे वैसा सागरहो तू कर । विरुद्ध मत कर। तम पर्वत हट कर कहने लगा कि "अज शम्बका अर्थ तो बकरा ही है, जो [ २७७ ] नहीं है । इस प्रकार सब शिष्योंके सामने उन दोनोंका बहुत कुछ शास्त्रार्थ हुआ। उस शास्त्रार्थमें शेनों ही
अपना-अपना पक्ष कहते रहे, हटे नहीं। अन्तमें दोनोंने यह निश्चय किया कि इस शाला राजा वसु भो। पढ़ा है और हमारे साथ पढ़ा है इसलिये वह जो कुछ कह दे वही प्रमाण मान लेना चाहिये। ऐसा न्याय! सबके सामने ठहरा। इस बातको सुनकर क्षीरकवंबकी स्त्री पर्वतकी माता सबसे पहले जाकर राजा वसुके पास पनी और राजासे कहने लगी कि हे राजन् ! आज मैं आपसे गुरुदक्षिणा मांगने आई हूँ, आपके गुरुभाई विदेशी ब्राह्मण नारयने आज सब शिष्योंके सामने शास्त्रार्थ आपके गुरुभाई पर्वतका मानभंग किया है। अब अन्तमें आपके वचनों के ऊपर न्याय ठहरा है। आप जो कह देंगे वही प्रमाण माना जायगा । इसलिये अब पर्वतके वचनोंका पक्ष हटना नहीं चाहिये बस यही गुरुदक्षिणा चाहती हूँ। गुरानोको यह बात सुनकर राजा वसुने उसको धीरज बंधाया और उसके कहे अनुसार काम करनेका वचन देकर उसे विदा किया।
इसके कुछ समय बाद ही नारद पर्वत और शिष्यमंडली आदि सब राजाके पास पहुंचे, राजा जिस सिंहासनपर बैठा करता था वह स्फटिकमणिका बना हुआ था। किसी एक दिन वह राजा कोड़ा करनेके लिये किसी वनमें जा पहुंचा या यहाँपर उसने एक स्फटिकमणिका ऊँचा खंभा देखा था वह वहाँसे उसे ले आया था और उसे अपनी राजसभाके मध्यमें रखकर उसके ऊपर सिंहासन कालकर बहुत ऊंचा बैठा करता।
था और इस प्रकार बहत हो सुसज्जित और सुन्दर लगा करता था। जिस समय नारद पर्वत आदि पहुंचे थे । उस समय भी वह राजा वसु उसी सिंहासनपर बैठा था । पर्वतने जाकर सब समाचार राजासे कहे और शिष्य ।
आदि सब राजसभाके सामने कहे। राजा वसु जानता था कि इन दोनोंके वचनोंमें नारवके वचन सत्य है तया पर्वतके मिथ्या हैं तथापि गरानीके कहनेसे जो पक्ष पकड लिया था उस पक्षके वशोभत होकर कहने लगा
कि "पर्वतके पचन प्रमाण है" राजाका यह कहना था कि उस महा सूठके पापसे वह स्फटिकका खंभा पृथ्वीमें में घुस गया यह देखकर नारव मावि सब लोगोंने राजासे प्रार्थना की कि "हे राजन् ! सत्र कहो शूठ महावुःख