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देखो साक्षात् हिंसा करमेवाला राघव महामरस्य तो नरक जाता है सो तो ठीक ही है क्योंकि वह बड़े-बड़े जलचर समान जीवोंको भक्षण करता है, इसलिये वह नरक जाता है। परंतु उसके कान या आंखके पलक
में रहनेवाला तंदुल वा चावलके समान शरीरको धारण करनेवाला शालिसिक्य नामका मरस्य केवल कान वा अर्घासागर २६७ ]
। नेत्रके मलको खाकर जोवित रहता है परन्तु जोवघातके बिना भी वह नरफमें जाता है । इसका कारण केवल
भावहिंसा है। उसके भावहिंसा सबा बनी रहती है इसीलिये यह नरक जाता है। यह सब कथन पुरुषार्थसिद्धचुपायसे जान लेना चाहिये । इसका वर्णन पहले भी कर चुके हैं।
अतएव भगवानके वचनोंको प्रमाण मानकर संशय मिथ्यात्वमें नहीं पड़ना चाहिये और न अनेक प्रकारका विपरीत कथन करना चाहिये । जो कोई ऐसा विपरीत कथन करता है उसके पांचों प्रकारके मिथ्यात्वका दोष लगता है। तथा मिथ्यात्वका दोष लगनेसे सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला श्रद्धान नष्ट हो इसलिये जिनपूजा, प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, रात्रिपूजन, अभिषेक, दान, धर्म आदिमें पापरूप श्रद्धान नहीं करना । चाहिये । जो ऐसा विपरीत अखान करते हैं वे ऊपर कहे हुये शास्त्रोंके, उनका कर्ता आचार्योके तया परंपरासे पंच परमेष्ठोके, जिनधर्म, जिनचैत्य और जिनचैत्यालयके विरोधो समझे जाते हैं। उन शास्त्रोंके प्रमाण पहले । अलग-अलग सबके दे चुके हैं उनको समझ कर विवेको जोवोंको जिनेन्द्रदेव, धर्म, गुरु, शास्त्रका विनय करना
चाहिये उनको आजा मानकर उनमें कहे हुये मुख्य धर्मको धारण करना चाहिये । जो ऐसा नहीं करते हैं वे देव, धर्म, गुरु-शास्त्रको निवा करनेवाले मिथ्यात्वी कहलाते हैं।
प्रश्न- यहाँपर कोई शंका करता है कि भाई तुम कहते हो सो ठीक है परन्तु यदि निरवध ( सचित्त। घातके दोष रहित ) पूजा आदि हो सकती है तो वहीं करनी चाहिये।
समाधान-परन्तु उसका उत्तर यह है कि श्रावकके लिये मुख्यतासे ऐसा होना असंभव है । तुम जो पूजा करते हो वह भी निरवधा ( आरम्भादिफके पापसे रहित ) दिखाई नहीं पड़ती। यदि तुम फिर भी यह कहो कि हम तो निरवद्य ही पूजा करते हैं तो सुनो। सबसे पहले तुम स्नान करते हो सो वह भी प्रसुक जलसे नहीं करते । पूजाके द्रव्य थोते हो सो भी प्रासुक जलसे नहीं धोते । बादाम, सुपारी, नारियल, इलायची आदि सावध फलोंको छोड़कर और कोई निरवद्य फल नहीं चढ़ाते, भगवानका प्रक्षालन करते हो अथवा जल
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