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पंचामृतको आदि लेकर जलारिक गंधोवक पर्यन्त भगवानके मस्तक लेकर समस्त शरीर पर अभिषेक कहा ।
है यह अभिषेक एक, दो, चार शास्त्रोंमें नहीं किन्तु इस प्रकरणके समस्त शास्त्रों में बतलाया है। चर्चासागर
आप लोग भी पूजामें जलको पूजा करते समय भगवान के सामने जलधारा वेते हो तथा व्रतोंके उद्या[२६९ ।
पनोंमें अल. इक्षरस, घृत, बही. दूध आवि पंचामृत तथा जलके कलश भर-भर कर शब्द करते हुए अपने उत्कृष्ट भाव लगाकर तथा अपने नेत्रोंको आनन्दसे तप्त करते हए भगवानके सामने खड़े
होकर दूधमे ही किसी अन्य पात्रमें उनकी धारा देते हो। अब इसमें विचारकी बात यह है कि आप लोग । # भगवानके ऊपर तो जलादिकको धारा नहीं देते किन्तु खड़े होकर सामने देते हो तो यह विधि शास्त्रानुसार
करते हो ! या केवल अपने बुद्धिबलसे करते हो ? अथवा दूसरेको देखा-देखो केवल स्पर्धके लिए करते हो। तथा जो करते हो उस कर्त्तव्यका फल एण्यरूप जानते हो या पापल्प ? इन कार्योंके लिए आपको जैसो श्रद्धा हो वैसा करो । जो इन कार्यो में आपको बता पापमयो है तो दूसरोंकी देखा-देखी वा वूसरोंको ईर्षासे व्यर्थ हो। जबर्दस्तो अपना अकल्याण क्यों करते हो । यह काम श्रद्धानियोंका नहीं हो सकता। क्योंकि जो धर्म-कार्योंमें । अपनी मान-बड़ाईके कारण पापोपार्जन करते हैं वे मिथ्यावृष्टि हैं यदि इन कार्योंको धर्मके लिए वा महापापोंको। दूर करनेके लिए और महापुण्य उपार्जन करनेके लिए करते हो तो फिर अन्य ऐसे हो कार्योका निषेष क्यों
करते हो। जब दूरसे हो इन जलधाराओंके करनेका इतना शुभफल होता है तो फिर अत्यन्त निकट करनेसे । और अधिक फलका होना स्वयं सिद्ध है। यदि इन कार्योंमें पाप ही माना जाय तो श्रीगुरुओंने शास्त्रोंमें ऐसा । क्यों लिखा है ? ये सब बातें भी तो विचार लेनी चाहिये ।
इसके सिवाय श्री वसुनन्दिस्वामीने अपने श्रावकाचारके ४९२ गाथामें लिखा है कि "भगवानका । अभिषेक करनेके फलसे यह भव्यजीव मेरुपर्वतपर इन्द्र विक देवोंके द्वारा क्षीरोदधिके जलसे बड़ी भक्तिपूर्वक
स्नान कराया जाता है। भावार्थ-अभिषेकके कलसे यह जीव तीर्थकर होता है और फिर इन्द्रादिक देव उसका अभिषेक करते हैं । सो हो लिखा है
अहिसेयफलेण जरो अहिसिंचिज्जइ सुदंसणस्सुवरि । खीरोयजलेण सुरिंदपमुह देवेहिं भत्तिस्स ॥ ४६२ ॥
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