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श्रीवसुनंदिने भी लिखा है
मालाधूपप्रदीपायैः सचित्तैः कोऽर्चयज्जिनम् । सावद्यसंभवं वक्ति यः स एवं प्रबोध्यते॥ पर्चासागर जिनार्चानेकजन्मोत्थं किल्विषं हन्ति यत्कृतम् । सा किन्न यजनाचारैभवसावद्यमगिनाम्॥ [ २५७ ]
पर्यन्ते यत्र वातेन दन्तिनः पर्वतोपमाः। तत्राल्पा शक्तितेजस्सु का कथा मषकादिषु ॥ मुक्तं स्यात्प्राणनाशाय विषं केवलमंगिनाम् । जीवनाय मरीच्या दिसदोषधविमिश्रितम् ॥ तथा कुटुम्बभोगार्थ आरंभः पापकृद् भवेत् । धर्मकृद् दानपूजादो हिंसालेशो मतः सदा ॥
अर्थात् जो पुरुष माला, वोप, धूपाविकसे पूजा करता है उसको जो पापलेश बतलाता है उसके लिए कहते हैं कि भगवानकी पूजा अनेक पापोंको नाश करनेवाली है फिर भला वह यत्नाचारपूर्वक होनेवाले प्राणियोंके पापोंको क्यों दूर नहीं कर सकसो । जिस हवासे पर्वतके समान हाथी बह जाते हैं उसके सामने थोड़ी-सी शक्ति और थोड़ेसे तेजको धारणा करनेवाले मच्छरों को काला बात है। जो विष अकेला खाया जाय तो प्राणनाश कर देता है परन्तु मिरच आदिके सम्मेलनसे बही विष जीवनदाता हो जाता है। इसी प्रकार कुटुम्ब वा ॥ भोगोपभोगके लिए किया हुआ आरम्भ पाप करनेवाला होता है परन्तु धर्मको बढ़ानेवाले दान, पूजा आदिमें । वही आरम्भ पुण्य बढ़ानेवाला होता है।
इस प्रकार पूजाके निन्दकोंका स्वरूप बतलाया विवेकी पुरुषोंको हट नहीं करना चाहिये । हट जिनधर्मका नाश करनेवाला है इसलिये ऊपर लिखे हुए शास्त्रोंसे निश्चय कर लेना चाहिये और शास्त्रानुसार गंध, 1 पुष्पादिक लगाना चाहिये । केवल अपने मनसे अपनी स्वकल्पित बुद्धिसे हट ग्रहण कर निश्चय किये बिना जो में व्यर्थ ही अनेक प्रकारके वाचालपनेसे कहते हैं तथा शास्त्रोंका प्रमाण देते नहीं उनके मिथ्यात्वके बंधकी श्री वीतराग ही जानते हैं । जो अपनी बुद्धिके बलसे व्यर्थ ही बाद करते हैं उससे मौन धारण करना योग्य है।। इस प्रकार प्रसंग पाकर थोड़ा-सा लिखा है फिर भी विशेष स्वरूप जाननेके लिए प्रश्नोत्तरसहित खण्डन-मण्डन पूर्वक चर्चा करना श्रेष्ठ है।
प्रश्न--यहाँपर कोई यह कहे कि हम तो इस कथनको नहीं मानते । अभिषेक, अप्रमाण जल फैलाया
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