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जाता है और बड़ा आरम्भ किया जाता है। इसलिए हम तो केवल प्रतिमाके ऊपरको धूलि, माले, मैल आदि-*
को मलिनताको दूर करनेके लिये तथा उसको उज्ज्वल रखनेके लिये थोड़ेसे जलमें वस्त्र भिगोकर प्रतिमाको । वर्चासागर
पोंछ लेते हैं। तुम्हारे समान घोर आरम्भ नहीं करते। इन आरम्भोंमें कोई पुण्य नहीं है इनमें तो पाप हो पाप, : २५८ } है। इन अभिषेकादिकमें कार्य वा फल तो थोड़ा है और कर्त्तव्यता वा आरम्भ बहुत है ऐसा कार्य यथार्थ
धवानो नहीं करते। यह तो मिथ्यातियोंका कार्य है । इस प्रकार नाना विकल्पजालरूप विरुद्ध बचन कहते । है उसका समाधान इस प्रकार है। पहला विचार यह है कि यथार्थ श्रद्धानी किसको कहते हैं। जो भगवानके कहे हुए तत्त्वोंका श्रद्धान करता है वही यथार्थ श्रद्धानी होता है। ऐसे श्रद्धानके बिना केवल जातिश्रवानी, नामश्रद्धानी अथवा वचनबद्वानो तो यथार्थश्रद्धानी हो नहीं सकते।
दूसरी बात यह है कि मुनि वा श्रावकके त्रिकाल करनेको सामयिकमें चैत्यभक्तिके पाठमें नीचे लिखे अनुसार लिखा है
इच्छामि भने बेग्यभत्ति काओसग्गो को तस्सा लोचेओ अहलोय, तिरियलोय, उड्ढलोयम्मि, किट्टिमा किट्टिमाणि, जाणि जिणचेइयाणि, ताणि सव्वाणि, तीसु वि लोएसु, भवणवासिय, वाणविंतर, जोइसिय, कप्पवासियत्ति, चउबिहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गन्धेण, दिवेण पुफ्फेण, दिव्वेण धुव्वेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिब्वेण ।
हाणेण, णिच्चकालं अंचंति, पुज्जंति, वंदंति, गमंसंति। अहमवि इह संतो तत्थ संताई #णिच्चकालं अंचेमि, पजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मरखओ, बोहिलाहो, सुगइगमणे, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झ ।
___अर्थात् तीनों लोकोंमें कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालय हैं तथा उनमें जो जिनप्रतिमा विराजमान हैं उनकी पूजा भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा कल्पवासी चारों प्रकारके देव करते हैं। वे देव देवोपनीत गंधसे, दिव्य पुष्पोंसे, दिव्य धूपसे, दिव्य चूर्णसे, दिव्य वाससे, दिव्य स्नपनसे ( अभिषेकसे ) सदा अर्चा करते हैं, पूजा करते । हैं, वंदना और नमस्कार करते हैं । अतएव सामायिक करनेवाला में भी यहाँ ही बैठा हुआ सदा अर्चा करता।