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सागर
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श्रीनेमिचन्द्रकृत कर्मकांडको संस्कृत टीकामें तथा वशाध्याय तत्त्वार्थसूत्रको टीकामें बंध तरवके भेदोंमें ऐसा ही कहा है ।
श्रीअमृतचन्द्रसूरिने लिखा है कि जो पुरुष तपस्वी गुरु और जिनप्रतिमाको पूजाका लोप करते हैं, दीन, अनाथ, कृपण और भिखारियोंको दान देनेका निषेध करते हैं दूसरोंको बाँधने, मारने, बेड़ी डालने, नासिका छेदन करने आदिके लिये कहते हैं जो प्रमादसे वेवपर चढ़ाये हुए नैवेद्यको ग्रहण करते हैं जो निर्दोष शास्त्रावि उपकरणोंका त्याग करते हैं प्राणियोंका वध करते हैं दान, भोग, उपभोग आदि विघ्न करते हैं जो ज्ञानका निषेध करते हैं और धर्म में विघ्न करते हैं उनके अन्तराय कर्मका आस्रव होता है । भावार्थ- ये सब कार्य अन्तराय कर्मके आयके कारण है। ऐसा लिखा है यथा-
तपस्विगुरुचैत्यानां पूजा लोपप्रवर्तनम् । अनाथदीनकृपणभिक्षादिप्रतिषेधनम् ॥ वधबंध निरोधैश्च नासिकाच्छेदकर्तनम् । प्रमादाद्देवतादत्तनेवेद्यग्रहणं तथा ॥ निरवद्योपकरणपरित्यागो वधोऽङ्गिनाम् । दानभोगोपभोगादिप्रत्यूहकरणं तथा ॥ ज्ञानस्य प्रतिषेधश्च धर्मविघ्नकृतिस्तथा । इत्येवमन्तरायस्य भवन्त्या स्त्रवहेतवः ॥ ( तस्वार्थसार अस्त्रववर्णन श्लोक ५५-५८ )
इस प्रकार बहुत-सा वर्णन है ।
आगे सचित पूजाका विधान कहते हैं
जो पुरुष भगवानको पूजामें पुष्प, फल, वाभ, दूब, पत्र, जल आदिमें सचित्तपनेका दोष मानते हैं और उनका निषेध करते हैं वे महापापी हैं, देखो श्रीसमन्तभद्र स्वामीने लिखा है-
पूज्यं जिनं त्वाचंयतो जिनस्य सावधलेशो बहुपुण्यराशो । दोषाय नाल कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥
अर्थात् भगवानकी पूजा करनेमें थोड़ा-सा पाप होता है परन्तु पुण्य बहुत बड़ा होता है। उसके सामने वह पाप कुछ चीज नहीं है। शोतल अमृतके समुद्रमें भला एक विषको कणिका क्या दोष उत्पन्न कर सकती है ?
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