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१३७-चर्चा एकसौ सैंतीसवीं प्रदन---पूर्व उत्तर दिशाको छोड़कर बाकी विशा विविशाओंको ओर मुख करके भगवान की पूजा क्यों सागर । नहीं करनी चाहिये । इसमें क्या दोष है ? १५३ ]
समाधान-पूर्व उत्तर विशाओंको छोड़कर बाकीको छ: विशाओंकी ओर मुख करके जो भगवान्को पूजा करते हैं वे उमास्वामीके वचनोंके विरुद्ध चलते हैं क्योंकि उमास्वामीने पूजा करनेके लिये वो ही दिशाकी मोर मह करना बतलाया है। बाको विशाओंका निषेध किया है। पहला दोष तो यह है। दूसरा दोष यह है कि । उचित वा शुभ कार्यो के लिए ये वो ही विशाएँ उसम मानी गयी हैं। क्योंकि तीर्थकर आदि भी इन दो ही दिशाओंको ओर मुख करके विराजमान होते हैं इन वो दिशाओंको छोड़कर बाकी दिशाओंकी ओर मुख करके है भगवानके विराजमान होनेका अथवा शुभ कार्योंके करनेका शास्त्रोंमें कहीं विधान नहीं आया है।
यवि इसमें भी किसीको सन्देह हो तो फिर उसके लिए विशेष कथन लिखते हैं। जो मनुष्य पूर्व, उत्तर है विशाको छोड़कर शेष अन्य विशामोंकी ओर मुख करके भगवान की पूजा करता है उसको अनेक प्रकारके अनर्थ A उत्पन्न होते हैं । प्रथम तो शास्त्रों में पूर्व, उत्तर दो ही विशाओंकी ओर मुख करके पूजा करनेका विधान बत। लाया है तथा बाको को दिशा विविशाओंको ओर मुख करके पूजा करनेका निषेध किया है। इतना जानते हुए
भी जो मनोमति ( केवल मनसे कल्पना करनेवाले ) अपनो बुद्धिके बलसे सामने खड़े होकर पूजा करनेको । । प्रधानता मानते हैं और इस प्रकार सब ही दिशा विदिशाओंकी ओर मुख करके पूजा करनेका विधान करते हैं
सो उनका यह सब कहना शास्त्रविरुद्ध है। क्योंकि शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि जो लोग पश्चिमकी ओर मुख करके भगवान्को पूजा करते हैं अर्थात् यवि भगवान पूर्व विशाको ओर मुख करके विराजमान हों और पूजा ! करनेवाला उनके सामने खड़े होकर पूजा करे तो उसका मुख पश्चिमको ओर होता ही है। इस प्रकार जो
| करते हैं उनको सन्तानका नाश होता है अर्थात पुत्र-पौत्राविका मरण होता है । तथा जो दक्षिण विशाकी ओर मुख करके भगवानको पूजा करते हैं अर्थात् यदि भगवान उत्तर दिशाकी ओर मुख करके विराजमान हों।
- [१५३ 1 और पूजा करनेवाला उनके सामने खड़े होकर पूजा करे तो उसका मुख दक्षिण दिशाको ओर होता है। यदि । इस प्रकार कोई पूजा करसा है तो उसके सन्ततिका अभाव होता है, उसके पुत्र-पौत्रादिक उत्पन्न नहीं होते।
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