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श्रीमत्पवित्रमकलङ्कमनन्तकल्पं स्वायंभुवं सकलमङ्गलमादितीर्थम् ।
नित्योत्सवं मणिमयं निलयं जिनामां लोजगभूषणमई शरणं प्रपद्ये ॥२॥ व सागर । श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाच्छनम्। जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥३॥ १६७]
श्रीमुखालोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत् ।आलोकनविहीनस्य तत्सुखावाप्तयः कुतः॥४॥
अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य देव ! त्वदीय चरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक ! प्रतिभासतेमे संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणम्॥५॥
नमो नमः सत्त्वहितंकराय वीराय भव्याम्बुजभास्कराय । अनंतलोकाय सुरार्चिताय देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ ६ ॥ नमो जिनाय त्रिदशार्चिताय विनष्टदोषाय गुणार्णवाय। विमुक्तिमार्गप्रतिबोधनाय देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ ७॥ देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर सिद्ध महानुभाव । त्रैलोक्यनाथ जिनपुगव वर्द्धमान स्वामिन् गतोस्मि शरणं चरणद्वयं ते ॥८॥ जितमदहर्षद्वेषा जितमोहपरीषहा जितकषायाः।
जितजन्ममरणरोगा जितमात्सर्या जयंतु जिनाः ॥ ६ ॥ सार्थक चिह है ऐसा त्रैलोक्यनाथका शासन प्रोजेनशासन चिरकाल तक जीवित रहो ।। ३ ।। आज श्रीजिनेन्द्रदेवका मुख देखनेसे मुक्तिलक्षमीका मुख देखा, भला जो धोजिनेन्द्रदेवके मुखका दर्शन नहीं करते उनको यह सुख कहाँसे मिल सकता है ।।४।। हे देव! आज आपके चरण-कमल देखनेसे मेरे दोनों ही नेत्र सफल हुए। हे त्रिलोकतिलक ! आज पह संसाररूपी समुद्र मुझे चुल्लूभर पानीके बराबर जान पड़ता है।॥ ५ ॥ समस्त प्राणियोंका भला करनेवाले, भव्यरूपो कमलोंको सूर्यके समान अनन्तलोक-अलोकको देखनेवाले देवलित देवाधिदेव श्रीवर्धमान जिनेन्द्रदेव के लिए नमस्कार हो !॥ ६ ॥ इन्द्रों द्वारा पूजित सुधादि। १८ दोषोंसे रहित, गुणोंके समुद्र, मोक्षमार्गके उपदेश देनेवाले, देवाधिदेव श्रोजिनेन्द्रदेवके लिए नमस्कार हो ॥ ७ ॥ हे देवाधिदेव, हे परमेश्वर ! हे वीतराग! हे सर्वज्ञ! हे तीर्थङ्कर ! हे सिद्ध, हे महानुभाव! हे त्रिलोवश्नाथ, हे जिनपुङ्गव, हे स्वामिन् ! मैं आपके चरणोंकी शरण में आया है।॥ ८॥ मद, हर्ष, द्वेष, मोह, परोषह, कषाय, जन्म, मरण, रोग और मात्सर्य आदिके
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