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वर्षासागर [ २४१
केवल चन्दन, केसर आदि मिले जलमें केवल शीतल और सुगन्धित होनेके सिवाय और कोई गुण नहीं है । पाप काटने का गुण उसमें केवल भगवान के स्पर्शमात्रमे होता है । इसी प्रकार गंध और पुष्पोंमें समझना चाहिए। गंधोदक तथा गंधमें कुछ होनाधिकता नहीं है । इसी प्रकार पुरुष अक्षतों में भी कुछ अन्तर नहीं है । ऐसा समझ लेना चाहिए । सो ही लिखा है
अंगुल्यग्रमिति देश जिनपादाचिंताक्षतान् । सुगंधलेपनस्योर्ध्वे मध्ये भाले धरे गृही ॥
अर्थात् 'गृहस्थोंको जनपादाचित अक्षत, सुगन्ध, लेप वा तिलकके ऊपर उँगलोके अग्रभागप्रमाण ललाटपर लगाना चाहिए।' यहाँपर इतना और समझ लेना चाहिए कि निर्माल्य भक्षणका दोष अक्षतोंके खानेसे होता है बिना खाये नहीं । आसिकाके अक्षत तो मस्तकपर धारण करने ही योग्य हैं। देखो सुलोचनाने अपने पिता राजा अकंपनको पुष्प मालाबिक पूजाको आसिका दी थी । सो हो आदिपुराणमें लिखा है--- विधायाष्टाह्निकी पूजामभ्यर्च्याच यथाविधि । कृतोपवासा तन्वंगी शेषान् दातुमुपागता ॥ नृपं सिंहासनासीनं सोप्युत्थाय कृतांजलिः । तद्दत्तशेषानादाय विधाय शिरसि स्वयम् ॥ उपवासपरिश्रान्ता पुत्रिके त्वं प्रयाहि हि । शरणं पारणाकाल इति कन्यां व्यसर्जयत् ॥
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भावार्थ — सुलोचनाने उपवासपूर्वक अष्टान्हिकाफी पूजाकी फिर वह सिंहासनपर बैठे हुए राजा ritant उस पूजाकी शेषा देनेके लिये सभामें गई । राजाने उठकर हाथ जोड़कर वह शेषा ली और स्वयं अपने मस्तक पर रखी । फिर पुत्रोको पारणाके लिये विवा किया।' इस प्रकार लिखा है ।
गंध, गंधोदक, पुष्प, अक्षत आदि बड़ी भक्तिसे विनयपूर्वक अपने मस्तक आदि उत्तमांगमें यथायोग्य रीतिसे धारण करना योग्य है। इनका धारण करना पुण्यबन्धका कारण है। तथा महा पापको नाश करनेवाला है। जो भाग्यहीन हैं वे हो इसको अवज्ञा करते हैं। यहो अनेक रोगोंको दूर करनेवाला है । गन्ध, गन्धोदक तथा पुष्पाविकको कथा जैन शास्त्रों में श्रीपाल आदि अनेक भव्य जीवोंके चरित्रोंमें लिखो है। तथा इन सबकी महिमा समस्त शास्त्रोंमें वर्णन की है ।
एक यह बात भी समझने योग्य है कि भगवानके चरणस्पर्शित गन्ध तथा पुष्पोंकी ही चरणरज संज्ञा है । भगवानके चरणों में मार्ग में चलनेसे लगी हुई धूलिकी तो संभावना हो नहीं है फिर चरणरजका वर्णन किस
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