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यही बात श्रीगुगभद्राचार्यकृत उत्तरपुरागमें श्रीशतिनाथ पुराण में लिखी है । यथा
स्वयंप्रभापिसद्धर्म तत्रादायैकदा मुदा । पर्वोपासपरिम्लानतनुरभ्यर्च्य चाईतः ॥ पासागर । तत्पादपंकजाश्लेषपवित्रा पापहा सृजम्।तां पित्रेपि तद्वयाभ्यां हस्ताभ्यां विनयानतः ।। २२८ तामादाय महीनाथो भक्त्यापश्यत्स्वयंप्रभाम्। उपवासपरिश्रांतां पारयेति व्यसर्जयत् ॥
यशस्तिलकचंपूर्म भी लिखा है।
पुष्प स्वदीयचरणाचनपीठसंगात् चूड़ामणिर्भवति देव ! जगत्त्रयस्य ।
अर्थात् हे वेव ! आपके चरणोंकी पूजाके सिंहासनके सम्बन्धसे पुष्प भी तोनों लोकोंका चूड़ामणि हो जाता है। धर्मरसिकमें भी लिखा है।
त्रिःपरीत्य जिनाधीशं भक्त्या नत्वा पुनः पुनः।
जिनोनिस्पर्शनात्सूतां शेषां शिरसि धारयेत् ॥ अति- भगवानको तोन प्रदक्षिणा देकर तथा भक्तिपूर्वक बार-बार नमस्कार कर भगवान के चरणोंके स्पर्शसे पवित्र हुई शेषाको मस्तक पर धारण करना चाहिये।
देवपूजाके प्राचीन पुस्तकोंके पाठमै पूजाको प्रतिमाके समय पूजकको मंत्रोंके द्वारा सब जगह जिनप्रतिमाके ऊपर पुष्पक्षेपण करनेका विधान है । यया
ओं विधियज्ञप्रतिज्ञानाय जिनप्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥ कथाकोशमें मकूटसप्तमोकी एक कया है वह इस प्रकार है। एक सेठके एक कन्या थी उसने श्रीमनिराबसे मुकुटसप्तमीका व्रत लिया था उसको विधिमें मुनिराजने बतलाया था कि श्रावण शुक्ला सप्तमीका उपवास करना चाहिये। उस दिन भगवानका अभिषेक कर पूजा करनी चाहिये । पुष्पोंकी माला पहनामा चाहिये तथा पुष्पोंका मुकुट श्रोजिनबिंबके मस्तक पर धारण कर कहना चाहिये कि हे जिनवर ! आप मुक्तिस्त्रीके वर हो इसीलिये आपके लिये यह मफुट और माला पहनाई जाती है। उन मुनिराजके उपदेशानुसार उस कन्याने ऐसा ही किया था सो ही प्रतकपाकोषामें मुकुटसप्तमोको कथामें लिखा है
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