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सागर २१७ ]
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पैर दबाना, पथ्यसे रखना, मलमूत्र दूर करना तथा भक्ति वा अनुरागसे अनेक प्रकारको सेवा शुश्रूषा करना । उनको सन्तोष देना सो नौवां वैयावृत्यकरण नामका कारण है।
दावा कारण अहंभक्ति है । भगवान कोतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी अरहन्तदेवको मन, वचन, कायसे भक्ति करना, उनकी पूजा, स्तुति करना आदि अहंभावित है।
ग्यारहवां कारण आचार्यभक्ति है । छत्तीस गुणोंको धारण करनेवाले आचार्य परमेष्ठीकी मन, वचन, कायसे भक्ति करना, पूजा, स्तुति करना सो आचार्यभक्ति है।
बारहवाँ कारण बहुश्रुतभक्ति अथवा उपाध्याय भक्ति है। ग्यारह अंग, चौवह पूर्व स्वरूप द्वादशांग श्रुतज्ञानको जाननेवाले उपाध्याय परमेष्ठीको मन, वचन, कायसे भक्ति करना, पूजा, स्तुति करना सो बहुश्रुत। भक्ति है।
तेरहवां कारण प्रवचनभक्ति है। प्रवचनका अर्थ वावशांग सिद्धांत शास्त्र है। उन सिद्धांतशास्त्रोंकी भक्ति करना, नमस्कार करना, पूजा, स्तुति करना सो सब प्रवचनभक्ति है। र चौवहयाँ कारण आवश्यकापरिहाणि है। समता, बन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग ये
छः मुनियों के आवश्यक हैं । सथा देवपूजा, गुरुको उपासना करना, स्वाध्याय करना, संयम धारण करना, तप करना, दान देना ये छ: गृहस्थोंके आवश्यक हैं । अपने-अपने आवश्यकोंको बिना किसी प्रमादके नित्य करना। A उसमें कभी शिथिलता न करना तथा कभी न चूकना सो आवश्यकापरिहाणि है । परिहाणि शब्दका अर्थ छोड़ना। । है और अपरिहाणिका अर्थ नहीं छोड़ना है, आवश्यकोंको नहीं छोड़ना सो आवश्यकापरिहाणि है।
पन्द्रहवां कारण मार्गप्रभावना है। मार्गशब्दका अर्थ मोक्षमार्ग अथवा जिनमार्ग है। जिनमार्ग था जैनधर्मको प्रभावना महिमा प्रगट करना सो मार्गप्रभावना है। घोर तपश्चरण करके, उत्तम विद्या प्राप्त करके, व्रत धारण करके, ध्यान धारण करके, उत्तमोत्तम उपदेश वेकर तथा परवादियोंका खजन करके अपने जैनधर्मका अतिशय चमत्कार विखलाना अथवा अपनी सामर्थ्यके अनसार अनेक प्रकारके रथोत्सव आदि उत्सवकर जिनमार्गका उद्योत करना सो मार्गप्रभावना है अथवा मार्ग शब्दका अर्थ मुनिजन भी है। मुनिजनोंको भक्ति करना, सब तरहसे उनको प्रभावना करना सो भी मार्गप्रभावना है।
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