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पूजा करनेवालेको वर्भासनपर बैठकर ऊपर लिखा मंत्र पढ़कर अपने पाप सम्बन्धी पापमलको जलानेके लिये वाभको दीपकसे जलाकर अग्निमण्डलपर रखना चाहिये। फिर ' ही मह प्रोजिन प्रभुजिमाय कर्मभस्मविघूननं कुरु कुरु स्वाहा' इस मन्त्रको पढ़कर उस जलो हुई वामकी भस्मपर जलधारा बेकर उसको बुमा देना चाहिए। फिर पञ्च परम गुरुमुद्रा धारण करनी चाहिये। फिर अ सि आ उ सा इनका न्यास करना चाहिये । अर्थात् इनको स्थापन करना चाहिये। फिर मल मण्डल यन्त्र बनाकर उसके ऊपर वह पः हः इन अमृत बीजोंको स्थापन कर अपने मस्तकपर जल छोड़ना चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार है-किसी तांबेके पात्रमें ( गोल कटोरा आदिमें ) जल भरकर उसमें अनामिका उंगलीसे जल मण्डल यन्त्र लिखना चाहिये । सो हो लिखा है
शठं स्वरावृत्तं तोयं मण्डलद्वयवेष्टितम्
यन्त्र जलमण्डल
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१. पहा परम गुरु मुद्राका स्वरूप इस प्रकार है। अपने दोनों हाथोंको सोषा कर दोनों हाथोंकी आठों संगलियोंको एक मोधमें।
मिलाकर बड़ी करनी चाहिए । फिर दोनों अनामिका (सबसे छोटी उंगलियों को मिली बड़ी करना चाहिए। फिर ।