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चसागर
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ॐ नमः परमात्मने नमोऽनेकांताय शान्तये ।।१३।।
इच्छामि भंते! आलोचेउं ईरियावहियस्स पुव्वुत्तरदक्खिणपच्छिम चउदिसु विदिसासु विहरमाणेण जुगंत्तर दिट्टिणा, भव्वेण, दट्ठवा । पमाददोसेण डवडवचरियाए पाणभूदजीवसत्ताणं उवघादो कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं । पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया मायाविना लोभिना, रागद्वेषमलीमसेन मनसा दुष्कर्म यन्निर्मितम् । त्रैलोक्याधिपते जिनेन्द्र भवतः श्रीपादमूलेऽधुना,
निन्दा पूर्वमहं जहामि सततं दुष्कर्मणां शान्तये ॥
इस पशुद्धिसे पहले लगे हुए पापोंका निराकरण करना चाहिये । फिर कनत्कनकर्घटितं विमलचीनपट्टोज्वलं बहुप्रकटवर्णकं कुशलशिल्पिभिर्वर्णितम् । जिनेन्द्रचरणाम्बुजद्वयं समर्चनीयं मया समस्तदुरितापहृत् वदनवस्त्रमुद्धाव्यते ॥ यह श्लोक पढ़कर अपने मुखपरके वस्त्रको हटाना चाहिये । श्रीमुखालोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत् आलोकन विहीनस्य तत्सुखावाप्तयः कुतः ।
हैं। उन दोषोंकी शुद्धि करने के लिए भगवान अरहंतको नमस्कार करता हूँ तथा ऐसे पापकर्म तथा दुष्ट आचरणोंका त्याग करता हूँ ॥ १२ ॥ अनेकान्त और शान्त परमात्मा के लिये नमस्कार हो, हे भगवन् ! मैं ईर्ष्यापथकी आलोचना करता हूँ, पूर्व, उत्तर, दक्षिण, पश्चिम चारों दिशा और ईशानादिक विदिशाओं में इधर-उधर फिरनेमें वा ऊपरको ओर मुख 'करके चलने में प्रमादवश ढींद्रियादिक प्राणी वृक्षादिक भूत पंचेंद्रियादिक जीव और एकेंद्रियादिक सत्व जोवोंका घात किया हो, कराया हो, अनुमति दी हो वे सब नाश होवें ।
हैलोक्याधिपते जिनेन्द्र ! पापों, दुष्ट, मन्दबुद्धि, कपटी, लोभी ऐसे मेरे द्वारा रागद्वेषसे मैले मनसे जो कुछ दुष्कर्म हुआ हो, उनको शांति करनेके लिए आपके चरण कमलोंके निकट अपनी निन्दा करता हुआ उन कामोंको छोड़ता हूँ ।
जो देदीप्यमान सुवर्णके समान है, सफेद रेशमी वस्त्रके समान निर्मल है। जिनकी अनन्त महिमा प्रकट है चतुर कारीगर भो जिनका वर्णन करते हैं जो समस्त पापोंको दूर भरनेवाले हैं ऐसी श्रीजिनेन्द्रदेव के चरण-कमलोंकी पूजा करनी चाहिये इसीलिए में अपने मुखवस्त्रको हटाता हूँ ।
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