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पर्यासागर
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विधान लिखा है उसे ही मानकर उसपर श्रद्धान करना चाहिये। कोई-कोई लोग इतने हठग्राही होते हैं कि वे पूजाके पाठ भी खड़े बोलते हैं । वे न स्वयं बैठते हैं और न बोलनेवालोंको बैठने देते हैं परन्तु यह उनका केवल हठ है इसमें अन्य और कोई कारण नहीं है ।
कदाचित् कोई यह कहे कि खड़े होकर पूजा करने में बड़ी सिनय होती है और विनय ही धर्मका मूल कारण है तो इसका उत्तर यह है कि यदि खड़े होनेमें ही विनय है तो शास्त्रसभा शास्त्रका वांचना सुनना, स्वयं स्वाध्याय करना, पढ़ना, पढ़ाना आदि कार्य भी खड़े होकर करना चाहिये। ऐसा करनेसे बड़ी विनय होगी और धर्म होगा । क्योंकि जैसा पूजामें धर्म है वैसा यहाँ भी धर्म है। इसके सिवाय खड़े होकर पूजा करनेमें धर्म है उसी प्रकार यदि एक परसे खड़े होकर पूजा की जाय तो खड़े होनेको अपेक्षा उससे अधिक कायक्लेश तप होगा, अधिक विनय होगी, अधिक भक्ति होगो सो ऐसा करना भी अच्छा समझा जायगा। इसलिये जैसा शास्त्रोंमें लिखा है उसी प्रकार श्रद्धान कर कार्य करना चाहिये। इसोमें विनय और धर्म सघता है। शास्त्रको आजाके प्रतिकूल चलनेमें न विनय है और न धर्म है। किन्तु उलटा अविनय होती है । सोही सूक्तिमुक्तावलीमें गुरुसेवाधिकारमें लिखा है--
किं ध्यानेन भवत्यशेषविषयत्यागैस्तपोभिः कृतं, पूर्णं भावनयालमिन्द्रियदमैः पर्याप्तमाप्तागमैः ।। । किंत्वेकं भवनाशनं कुरु गुरुप्रीत्या गुरोः शासनं,
सर्व येन विना विनाथवलवत्स्वार्थाय नालं गुणाः ॥ __टीका-भो भव्याः गुरोः आज्ञां विना ध्यानं चेत् ? तर्हि तेन ध्यानेन किं अपि तु न किमपि फलम् । पुनः गुरोः आज्ञा विना तपोभिः कृतं षष्ठाष्टमदशमद्वादशमादिपक्षक्षपणमासक्षपणसिंहनिःक्रीडितादिभिस्तपोभिः कृतं संपूर्ण जातं । अर्थात् न किमपि । पुन
र्भावनया शुभभावेनापि पूर्णता जाता। पुनः इंद्रियदमैः पंचेंद्रियाणां दमनं कृत्वा अलं ॥ पूर्ण मतम् । पुनः आप्तागमैः सूत्रसिद्धांतपठनैरपि पर्याप्त पूर्ण जातं तर्हि किम् ? किंतु।