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खण्डितेतिजीर्णे छिन्ने मलिने नैव वाससि।दानं पूजा जपो होमं स्वाध्यायो निष्फलं भवेत्॥
धर्मरसिकशास्त्रमें भी यही लिखा है। सिागर । काषायं धूम्रवर्ण च केशज केशभूषितम् । छिन्नाग्रं चोपवस्त्रं च कुत्सितं नाचरेन्नरः ॥३॥ ६२] । दग्धंजीणं च मलिनं मूषकोपहतं तथा।खादितं गोमहिष्यायैस्तस्याज्यं सर्वथा द्विजैः ॥३५॥ इस प्रकार विशेष वर्णन यहाँ लिखा है। यहां संक्षेपसे लिखा गया है।
१४३-चर्चा एकसो तिरालीसवीं प्रश्न-त्रिकाल पूजाको विधि क्या है ?
समाधान-चतुर भव्य जीवोंको नियमपूर्वक तोनों समय भगवानको पूजा करनी चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार है कि सबसे पहले पहिले लिखी हुई विधिके अनुसार स्नानादिक कर भगवानको पूजा करनी चाहिये ।। उसकी विधि इस प्रकार है। प्रथम प्रातःकाल भगवानका जलाभिषेक करना चाहिये फिर चंदन, केशरमें कपूर ॥ मिलाकर भगवानके चरण कमलोंको घर्चना करनी चाहिये। यह प्रातःकालको पूजा है। फिर दोपहर के समय
अनेक प्रकारके सुगन्धित और मनोज पुष्पोंसे भगवानको पूजा करनी चाहिये यह मध्याह्न पूजा कहलाती है। तिबनंतर शामके समय वीप और धूपसे पूजा करनी चाहिये । भावार्थ-प्रातःकाल तो चंदनसे पूजा करनी ।
चाहिये। मध्याह्न समयमें पुष्पोंसे पूजा करनी चाहिये और तार्यकालको वीपकसे आरती उतार कर दीपसे ।। पूजा करनी चाहिये और सुगन्धित चंदन आदि शुभ द्रव्योंको बनी हुई धूपको अग्निमें वहनकर धूपसे पूजा करनी।
चाहिये । यह त्रिकाल पूजाको रीति है । सो हो श्रीउमास्वामिविरचित श्रावकाचारमें लिखा है। श्रीचंदनं विना नैव पूजां कुर्यात्कदाचन । प्रभाते घनसारस्य पूजा कार्या विचक्षणः ॥
मध्याह कुसुमैः पूजा संध्यायां दीपधूपयुक्।
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१. जो वस्त्र मलिन हों, बालोंका, उनका बना हो । बालसे सुशोभित हो, जिसके पल्ले फट गये हों, छोटा हो, बुरा हो, जला
हो, पुराना हो, कषेला वा धूमके रंगका हो, चूहों का कतरा हो वा गाय, भैसका खाया हो वह सब त्याग करने योग्य है।