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सिागर
पर्यकेन मया शिवाय विधिच्छ्न्यै कभूभृद्दरी
___मध्यस्थेन कदाचिदर्पितदृशा स्थातव्यमंतर्मुखम् ।। -पांचवा अधिकार । इससे भी पद्मासनसे बैठकर ही पूजा करना श्रेष्ठ सिद्ध होता है। फिर भी जो तुम खड़े होकर विनय और भक्ति आदि बसलाते हो सो सब व्यर्थ है। पूजा करनेमें खड़े होनेका प्रसंग ही नहीं है।
इसके आगे यह जो कहा कि बैठकर पूजा करनेके विधानको हम नहीं मानते सो भगवानके वचनों में संदेह करना, पूर्वाधार्योंके वचनोंको न मानता अन्धे पुरुषके द्वारा आकाशमें उड़ते हुये पक्षियोंकी गिनती करनेके समान है । अर्थात् व्यर्थ है । क्योंकि अन्या पुरुष आकाशमें उड़ते हुये पक्षियोंकी गिनती कर हो नहीं सकता ।। यदि करे तो व्यर्थ है । इसी प्रकार तुम्हारा भी भगवानके वचनोंमें संवेह करना व्यर्थ है । सो ही पपनंदि पंचविशप्तिकाके प्रथमाधिकारमें लिखा है।
यः कल्पयेत् किमपि सर्वविदोपि वाचि संदिह्य तत्वमसमंजसमात्मबुद्धया। खे पत्रिणां विचरतां सुदृशोक्षितानां संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमंधः॥ १२५ ॥
जो भगवानके वचनोंमें संदेह करते हैं उनके लिये आचार्योंने इस प्रकार लिखा है। यदि अब भी संवेह हो तो वह और भी अनेक जैनशास्त्रोंमें इसके प्रमाण मिलते हैं उन्हें देखकर अपना संदेह दूर कर लेना चाहिये । देखो वेवसेनकृत भाव संग्रहमें भी बैठकर पूजा करनेका विधान है। यथा
पासुइ जलेण व्हाइय णिवसिय वस्थायगंपितं ठाणे ।
इरियाविहं च सोहिय उवविस उपडिम आसणं ॥ अर्थात्पूजा करनेवालेको सबसे पहले प्रासुक जलसे स्नान करना चाहिये फिर शुद्ध वस्त्र पहिन कर नीचेकी ओर दृष्टि कर मार्गको देखते हुए आना चाहिये तथा पूजाके स्थानपर पद्मासनसे बैठ कर पूजा करना चाहिये । यही बात यशस्तिलकचंपू नामके महाकाव्यमें लिखा है।
उदङ मुख स्वयं तिष्ठेत् प्राऊ मुखं स्थापयेज्जिनम् । पूजाक्षणे भवेन्नित्यं यमी वाथ्यमीक्रियः॥