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जसागर १५९ ]
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गुरुप्रीत्या गरिष्ठवात्सल्येन अधिकादरेण एके गुरोः शासनं आज्ञां कुरु । गुरोः एव आज्ञां शुद्धां पालय । किं भूतं गुरोः शासनं संसारपरिभ्रमणवारकम् । यतो येन गुरोः शासनेन आज्ञया विना सर्वेपि गुणा निष्फला इत्यर्थः । किंवत् विनाथबलवत् । निर्नायक सैन्यवत् । यथा निर्नायकं सैन्यं जयसाधकं न । तथा गुरोः आज्ञां विना पूर्वोक क्रियानुष्ठानादिकं सर्व निष्फलमेवेति ज्ञात्वा आज्ञापूर्वकं सर्वं कर्तव्यम् ।'
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safe कोई यह समझे कि चाहे जिस प्रकार करो फल तो भावोंके अनुसार लगता है, उसके लिये कहते हैं कि गुरुकी आज्ञाके विना ध्यान, विषयका त्याग, तप, शुभ, भाव, इन्द्रियोंकी विजय और सिद्धांतादि शास्त्रोंका स्वाध्याय आदि सब बिना सेनापतिकी सेनाके समान व्यर्थ है । इसलिये गुरुकी आज्ञा के अनुसार जप, तप, पूजा आदि करना योग्य है । गुरुकी आज्ञाके अनुसार कार्य करनेमें हो सफलता है। अपने मनके अनुसार कार्य करना सर्वथा व्यर्थ है ऐसा सिद्धांत है ।
१३६ - चर्चा एकसौ उनतालीसवीं
प्रश्न बैठकर पूजा करनेमें पूजा करनेवालेको दृष्टि भगवानके ऊपर नहीं रह सकती। क्योंकि भगवान तो बहुत ऊँचे विराजमान रहते हैं और बैठकर पूजा करनेवाला बहुत नीचा रहेगा ऐसी अवस्था में पूजामें भाव भी नहीं लगते। इसलिये बैठकर पूजा करनेमें संदेह बना ही रहता है
समाधान --- जैन शास्त्रों में गृहस्थको अपने घर चैत्यालय बनानेकी विधि इस प्रकार लिखी है कि गृहस्थको अपने मकान के दरवाजेके बांई ओर बिना किसी शिलाके ( कारीगरीसे रहित ) भगवानको विराजमान करनेका स्थान बनाना चाहिये । उस स्थान से डेढ़ हाथ ऊंची वेदी बतानी चाहिये और उसपर भगवानको विराजमान करना चाहिये । भावार्थ-- जब श्रेवी डेढ़ हाथ ऊंचो रहेगी तो बैठकर पूजा करनेवालोंकी दृष्टि भगवानके चरणों पर हो रहेगी ऐसा श्रीउमास्वामीने श्रावकाचारमें लिखा है यथा-गृहे प्रवशितावामभागे शिल्पविवर्जिते । देवता सदनं कुर्यात्सार्द्धहस्तोर्ध्व भूमिकम् ।
१. इस श्लोक और टीकाका अभिप्राय यही है कि गुरुको आज्ञाके विना जप, तप, ध्यान, पूजा आदि सब व्यर्थ है इसलिये सब काम गुरुकी भाशा के अनुसार करने चाहिये ।
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