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, द्रव्यों से पूजा करना सो द्वन्यपूजा है। इसका अभिप्राय यह है कि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये ।
छः द्रव्य हैं इन सबमें सारभूत द्रव्य परमात्म द्रव्य है उस परमात्माकी अष्टद्रव्यसे पूजा करना द्रव्यपूजा है। सो हो लिखा है
दवेण य दव्वस्स य जा पूया जाण दवपूजा सा।
दव्वेण गंधसलिलाइपुव्वभणियेण कायव्वा ॥ ४४६॥ - यदि इस द्रव्यपूजाका विशेष वर्णन किया जाय तो इसके तीन भेद हैं--सचित्त द्रव्यपूजा, अचित्त द्रव्यपूजा और मिश्रद्रग्यपूजा । साक्षात् जिनेन्द्रदेवको अयना साक्षात् आचार्य, उपाध्याय का साधुओंको जल, गन्ध आदि आठों ब्रव्योंसे यथायोग्यरोतिसे पूजा करना सो सचित्त द्रव्यपूजा है । अर्थात् चैतन्य गुणविशिष्ट परमेष्ठीको पूजा करना सचित्त द्रव्यपूजा है । सो हो लिखा है--
तिविहा दब्बे पूया सञ्चित्ताच्चित्तमिस्सभेयेण।
पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूया जहाजोगं ॥ ४५०॥ तथा उन तीर्थरोंके मोक्ष हो जाने बाद वा आचार्य, उपाध्याय, साधुओंके मोक्ष हुए बाद उनके शरीर-1 में की पूजा करना अथवा उनके वचनोंको शास्त्रोंकी जल, गन्धादिकसे पूजा करना सो अचित्त द्रव्यपूजा है । । क्योंकि वह शरीर अथवा बचन चेतना रहित है। इसी प्रकार शास्त्रसहित गुरुकी पूजा करना सो सचित्तअचित्त मिली हुई मित्र द्रव्यपूजा है। इसमें शास्त्र तो अचित्त है और साक्षात् गुरु सचित्त हैं। इन दोनोंकी समुच्चयपूजा करना मिश्रपूजा है । सो ही लिखा है
तेसिं च सरीराणां दव्वसुदस्सवि अचित्त सा पूया ।
जा पुण दोण्ह इ कीरइ णायव्वा मिस्स पूया सा ॥ ४५१ ॥ इस प्रकार द्रव्यपूजा तीन प्रकार है।
जहाँपर तीर्थङ्करोंक जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण आदि कल्याणक हुए हैं वहां जाकर उस भूमिको जल, गन्धादिकसे पूजा करना सो क्षेत्रपूजा है । भावार्थ-अयोध्या, बनारस आवि नगरों में जहां-जहाँ श्रीवृषभादि वोर
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