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पचासागर [४६]
केवलियोंके सिवाय और केवली केयलिसमुख्घात करें भी तथा न भी करें । भावार्थ--जिनको आयु छह महीनेको बाकी रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे केवली तो नियमसे समुद्घात करते हो हैं । ऐसे फेवलियोंके सिवाय अन्य केवलियोंका समुहात करनेका नियम नहीं है।
जब तेरहवे सयोगिकेवलो नामके गुणस्थानको स्थिति अंतर्मुहूर्त बाकी रह जाती है तब दंडे, फबाट, प्रतर, पूर्ण, प्रतर, कवाट, बंड, निज बेह मात्र ऐसे आठ समयमें समुद्घात कर तेरहवें गुणस्थानके अंतिम समयमें अघातिया कर्मोको स्थितिको योग निरोधकर आयुके बराबर करते हैं फिर कोका नाश करते हुए चौदहवें गुणस्थानके अंतमें मोक्ष प्राप्त करते हैं। सो हो वसुनंदि श्रावकाचार में लिखा है
छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं गाणं । सो कुणइ समुग्घायं इदरो पुण होय वा भणिज्जो ॥ ५३१ ॥ अंतोमुहत्तसेसा उगम्मि दंड कवाड पयरं च । जइय पूरणमथ कवाड दंडं णियतसुयमाणं च ॥ ५३२ ॥ एवं पयेसपसरणं संवरणं कुणइ अट्ठ समयेहिं ।
होहिंति जोइ चरिमे अघाइ कम्माणि सरिसाणि ॥ इस प्रकार और भी वर्णन है इससे कहना पड़ता है कि जो जीव चौवह गुणस्थानमें समुद्घात मानते है और आठवें समयमै मुक्ति जाना बतलाते हैं वे मूर्ख हैं वे शास्त्री नहीं है।
४४-चर्चा चवालीसवीं। प्रश्न-श्रीजिनणिों में चौबीसी प्रतिमाओंमें अगल-बगल वोनों ओर श्रीदेवो अर्थात् लक्ष्मी और सरकेवली भगवान् चाहे पूर्व दिशाको ओर मुंह कर विराजमान हो चाहे उत्तर दिशाको ओर मुहकर विराजमान हों। चाहे वे बैठे हों चाहे खड़े हो सबके आत्माके प्रदेश दडाकार होते हैं अपर नीचे दोनों ओर वातवलयके आरंभ तक लग जाते हैं दूसरे समयमें कवाट रूप होकर अर्थात् अगल-बगल की ओर फैल कर वातवलय तक लग जाते हैं तीसरे समयमें आगे-पीछेकी ओर फेल कर वातवलय तक लग जाते हैं चौथे समयमें वातवलयों में जाकर लोकपूर्ण हो जाते हैं पांचवें समयमें प्रतररूप, छठे समयमें कवाट रूप, सासर्वे समयमें वंड रूप और आठवें समयमें शरीरके बराबर हो जाते हैं।