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सागर
स्वतीको मूर्ति रहती है तया जिनमुर्तिके पास यक्ष यक्षिणोको मूर्ति रहती है सो यह क्या बात है। जिन 8 अरहतदेवकी प्रतिमाओंके पास यक्षाविक को व सरस्वती आदिको मूर्ति हो उनको नमस्कार करना चाहिये या नहीं, उनकी पूजा करनी चाहिये या नहीं। तथा जिनेन्द्रदेवको प्रतिमाके अगल-बगल यक्षादिकोंको मूर्ति होना । शास्त्रोक्त है या किसीने मनसे कल्पना कर बनवा दी है ?
समाधान--भगवान् अरहंतवैवको प्रतिमाके साथ-साथ यक्षाविकको मूर्तियाँ अनादिकालसे चली आ रही हैं और अनंतकाल तक रहेंगी। यह कोई मनको कल्पना नहीं है किन्तु शास्त्रोक्त हैं। शाश्वत वा अनादि माला अनन्मा कर हमारती अहमिग लिन प्रतिमाओंमें भी इन बिलोंके रहनेका वर्णन है। तथा अकृत्रिम प्रतिमाओंको आम्नायके अनुसार हो कृत्रिम प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। इसलिये कृत्रिम प्रतिमाओंमें भी ये बिल अवश्य होने चाहिये। किसी-किसी जिन मन्दिरमें अब भी यक्षादिकोंको मूर्ति सहित लगभग दो दो हजार वर्ष पहलेको जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं वे भला अपूज्य कैसे हो सकती हैं।
अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं के साथ-साथ यक्षाविक वा लक्ष्मी सरस्वतीको प्रतिमाओंका निर्णय श्रीनेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्सी विरचित त्रिलोकसारमें है । तथा जिनबिंबका कथन करते समय लिखा है । यया
दसतालमाणलक्खण भरिया पेक्खंत इव वदंता वा। पुरु जिण तुंगापढिमा रमणमया अट्ठ अहियसया ॥६८६ ॥ चमर करणाग जक्खग बत्तीसं मिहणगेहि पुहजुत्ता। सरिसीए पत्तीए गम्भगिहे सुट्ठ सोहति ।। ७८७ ॥ सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण्हसणकुमार जक्खाणं ।
रुवाणियजिणपासे मंगल मट्टविहमवि होदी ॥६७८ ॥ इस प्रकार लिखा है । इसका भावार्थ यह है कि उस गर्भगृहमें ( श्रीमंडपमें ) एक सौ आठ प्रतिमाएँ । विराजमान हैं। ये प्रतिमाएँ इस ताल ( धनुष ) ऊंची हैं एक-एक प्रतिमाके दोनों ओर बत्तोस-बत्तीस यक्ष चमर लिये खड़े हैं। तथा उन जिन प्रतिमाओंके दोनों ओर श्रीदेवो और सरस्वती देवो ये दोनों देवियाँ स्त्रीका ।
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