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भिटक गया तब लाचार होकर यह कहना पड़ा कि भाई एक तिहाई हाथी अटक गया" इसी प्रकार के विद्या
पर और मुनिराज निन्यानवे हजार योजन ऊँचे तो चले जायें परन्तु उनसे सत्रह सौ इकईस योजन ऊंचा बर्षासागर मानुषोसर पर्वत उल्लंघन न किया जाय अतएव यह कहना असंभव है। [८ ] म उत्तर-जिस प्रकार इस जोषका स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है परन्तु कर्मरहित मुक्त जीव भी लोकके।
। शिखरपर्यन्त ही जाते हैं। आगे अलोकाकाशमें नहीं जातं । वे भी अपने लोकफे क्षेत्रपर्यंत ही गमन करते हैं। आगे गमन करने में वे भी असमर्थ हैं । इसी प्रकार मानुषोत्तर पर्वतके आगे भी कोई नहीं जा सकता।
प्रश्न-मुक्त जीव जो लोकशिखरसे आगे नहीं जाते उसका कारण तो लोकके आगे धर्मद्रष्यका अभाव है। धर्मवष्यके अभावसे आगे नहीं जा सकते तो ही लिखा है।
धर्मास्तिकायाभावात् । -अध्याय १० सूत्र सं०८ __ परन्तु यहाँ किस व्यका अभाव है जिसके कारण वे मानुषोत्तर पर्वतका उल्लंघन नहीं कर सकते।। उत्तर-मानुषोत्तर पर्वतको उल्लंघन करनेकी सामर्थ्य न तो विमानोंमें और न ऋद्धियोंमें है । इसीलिये वे । उसका उल्लंघन नहीं कर सकते । आगे और भी उवाहरण लिखते हैं जिस प्रकार लवणोषि आदि समुद्रों के
जलका पूर आता है उस समय वह जल ऊपरको ही बढ़ता है अपने किनारेको मर्यादा नहीं छोड़ता अर्थात् ऊँचा बंधा हुमा किनारा न होनेपर भी वह समुा अपना किनारा छोड़कर आगे नहीं बढ़ता । अथवा लोहा
नामको धातुमें एक कांति नामका लोहा होता है उसकी कढ़ाई भी बनती है उस कढ़ाई में मवि ऊपर तक दूध । भर दें और उसके नीचे अग्नि जलावें तो उस अग्निकी गर्मोसे उस वृधर्म उफान तो आवेगा परन्तु उस उफान
से वह बूष ऊपरको हो चढ़ेगा उस कढ़ाईके किनारेसे बाहर निकल कर वह पृथ्वीपर नहीं पड़ेगा। सो हो भाव। प्रकाश नामके आयुर्वेदशास्त्रमें लिखा है।
यस्पात्रे न प्रसरति जलें तैलविदुः प्रलिप्ते हिंगुर्गन्धं त्यजति च निजं तिक्ततां निम्बकल्कः ।। तप्तं दुग्धं भवति शिखराकारकं नेति भूमि कृष्णगिं स्यात्सजल चकणे कान्तलोहं तदुक्तन् ॥ ।
अथवा मछली जलमें गमन करती है तथा जलको महाधाराके सामने वा उसके ऊपर चली जाती है । ऐसो उसको शक्ति है तो भी वह जलके बाहर एक पैर भी नहीं चल सकती। अथवा सर्वार्थसिडि नामके ।।