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पर्चासागर
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पुवण्हे मज्झण्हे अवरण्हे मझमाय रयणीये । छ च्छ घडीये णिग्गइ दिव्यधुणी जिणवरिंदाणं ॥
५३-चर्चा त्रेपनवीं प्रश्न-स्वयंभूरमण समुद्र में रहनेवाला सालिसिस्थ नामका मत्स्य अपने शरीरसे तो कुछ हिंसा आदि पाप करता ही नहीं है। केवल हिंसा करनेके पापको मनसे चितवन करता रहता है और उसी मानसिक पापसे ( हिंसा किये बिना हो ) यह सातवें नरक जाता है सो उसको वाह हिंसा करनेके बिना ही पाप किस प्रकार लग जाता है ?
समाधान तुम्हारा कहना तब सत्य हो सकता है जब कि पाप केवल शरोरसे ही लगते हों परन्तु पाप तो मन, वचन, काय तोनों योगोंसे बराबर लगते हैं मोक्षशास्त्रमें लिखा है "प्रमत्तयोगात्प्राणव्यषरोपणं हिंसा" अर्थात् कषायोंके उत्पन्न होनेपर प्राणोंका व्यपरोपण व घात होना हिंसा है। इसी वचनके अनुसार। । उसे सातवें नरकमें जाना पड़ा । इसी सूत्रको श्रुतसागरी टोकामे एक श्लोक भी लिखा है। स्वमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा कषायवान्। पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा नवा वधः॥
अर्थात्-कषाय करनेवाला आत्मा अपने कषायसे पहले तो अपने आत्माको हिंसा करता है क्रोधादिक । कषायके द्वारा अपने आत्माके गणोंका घात करता है। उस अपनी हिसाके बाद जिसको हिंसा बंद करना। चाहता है उसको हिंसा हो भी जाय अथवा उसके तोत्र पुण्यसे न भी हो तथापि अपने आत्माकी हिंसा करनेके पापसे जो कर्मबन्ध होता है उसके फलसे नरक जाना पड़ता है। यही कारण है कि शालिसिस्थ नामका मत्स्य । १. सबसे बड़ा तन्दुल मत्स्य होता है उसके मुंह तथा नाकमें साँसके साथ हजारों मछलियाँ पेटमें चली जाती है और वे साँसके निकालते समय उल्टो वापिस आ जाती हैं उसी लंदुल मत्स्यकी आँखके पलक पर एक छोटा सा शालिसिस्थ नामका मस्य रहता है । वह उन मछलियोंके बाहर निकलते समय सोता है कि यह मत्स्य कैसा मुर्ख है जो पेटमें पहुंची हुई मछलियोंको भी बाहर आ जाने देता है यदि मैं होता तो एक भी मछलोको बाहर नहीं आने देता। यद्यपि वह उन मछलियोको जरा सो चोट भी नहीं पहुंचा सकता तथापि केवल इसी मानसिक पापके कारग बह सातवें नरकमें जाता है तथा बड़ा तंदुल मत्स्य पहले ही नरक जाता है।
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