________________
जनगार
-
अथ धर्मामृतं पद्यद्विसहस्या दिशाम्यहम्।
निर्दःखं सुखमिच्छन्तो भव्याः शृणुत धीधनाः॥६॥ इस पद्यकी आदिमें जो अथ-शब्द आया है वह मंगलवाचक है। क्योंकि- “सिद्धिबुद्धिर्जयो बृद्धी । राज्यपुष्टिस्तथैवच । ओंकारश्चाथशब्दश्च नांदीमंगलवाचिनः ॥ " सिद्धि, बुद्धि, जय, वृद्धि, राज्यपुष्टि, तथा ओंकार और अथशब्द नांदीमंगलवाची हैं। अथवा अथ-शब्द अधिकारवाचक होसकता है। क्योंकि यहांसे शास्त्रका अधिकार चलता है। यद्वा अनन्तर अर्थ करना चाहिये। क्योंकि मुख्य मंगलको करनेके अनंतर अब ' ऐसा अर्थ भी यहां होता है । -
परिमित अक्षर तथा मात्राओंके समूहका नाम पद है। इन पदोंके द्वारा श्लोक आर्या गीति उपगीति आदि छंदरूपमें की गई वाक्यरचनाको पद्य कहते हैं । ऐसे दो हजार पद्योंके द्वारा मैं धर्मामृत ग्रंथका प्रतिपादन करता हूं। सुननेकी इच्छा तथा श्रवण ग्रहण धारण आदि आठ गुणोंसे युक्त बुद्धिरूप धनके धारण करनेवाले हे भव्यो ! दुःखोंसे सर्वथा अतिक्रांत मोक्षसुखकी इच्छा रखते हुए आप इसको सुनें। क्योंकि सुखका वास्तविक लक्षण निराकुलता है, जो कि मोक्षमें ही प्राप्त हो सकता है । संसारमें जो सुख है वह दुःखोंसे मिश्रित अथवा दुःखरूप ही है। कहा है कि
... सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं ।
ज इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।। इति । जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह सुख नहीं; वास्तवमें दुःख ही है । क्योंकि वह परवश-कमाके अधीन, बाधासहित-दुःखोंसे मिश्रित, विच्छिन्न, सांत-नष्ट होनेवाला, कर्मबंधका कारण, और विसम-कुटिल अथवा भयंकर है।
अध्याय