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जनगार
साय लगा हुआ है। ऐसे जीव धर्मके नाम तथा स्वरूपसे बिलकुल ही अनभिज्ञ हैं। वे यह नहीं जानते कि धर्म क्या वस्तु है और उसका क्या स्वरूप है। इसी प्रकार कितने ही जीवोंके, जिनके कि ज्ञानावरण कर्मका उदय मंद है, धर्म और उसके स्वरूपके विषयमें इस तरहका चलितप्रतीतिरूप संदेह लगा हुआ है कि 'धर्म यही है या दूसरा है, अथवा धर्मका यही स्वरूप है या दूसरा स्वरूप है'। तथा कितने ही जीवोंके, जिनके कि ज्ञानावरण कर्मका उदय मध्यम दर्जेका है, इसके विषयमें भ्रम-विपर्यास लगा हुआ है। ऐसे जीव यथार्थ स्वरूप से विपरीत ही धर्मके स्वरूपका निश्चय किये हुए हैं। किंतु उक्त धर्मोपदेशके प्रति दिन सुननेवाले जीवोंका उसके अनुग्रहसे वह वह अज्ञान संशय अथवा विपर्यास दूर हो जाता है। जो अज्ञानी हैं उनका उक्त अज्ञान धर्मोपदेशके प्रतिदिन सुनते सुनते दूर होजाता है और यथार्थ स्वरूप तथा आकारविशेषकी अपेक्षा ऐसा निश्चय होजाता है कि " धर्म यही है और ऐसा ही है"। इसी प्रकार इस धर्मोपदेशके अनुग्रहसे ही संदिग्धोंके उक्त संदेहका विनाश और विपर्यस्तोंके उक्त विपर्यासका भी निरास होजाता है और धर्मके स्वरूप तथा आकारका उक्त प्रकारसे निश्चय होजाता है। इन तीनो कार्योंको, धर्मोपदेशके अनुग्रहसे, ऐसा कहनेका प्रयोजन यह है कि जीवोंको क्षयोपशमके अनुसार अतिशयप्राप्तिमें यह निमित्त कारण पडता है।
यहांपर यह बात भी समझलेनी चाहिये कि धर्मोपदेशका यह फल तीन प्रकारके अव्युत्पन्न सम्यग्दृष्टि अथवा भद्रपरिणामी मिथ्यादृष्टियोंकी अपेक्षासे ही दिखाया गया है। क्योंकि जो क्रूर परिणामी मिथ्यादृष्टि हैं वे उपदेशके अधिकारी नहीं हो सकते।
जो सम्यग्दृष्टि श्रोता हैं उनको प्रतिदिन इस धर्मोपदेश सुननेका यह फल प्राप्त होता है कि उक्त धर्मके विषयमें 'धर्म यही है, इसी प्रकारसे है, अन्य नहीं हैं, और न अन्य प्रकारसे है ' इस तरह अनुबोधरूपसे उनका श्रद्धान दृढ हो जाता है। इसी प्रकार जो दृढश्रद्धानी श्रोता हैं उनको अथवा दूसरे सम्यग्दृष्टियोंको भी उसके प्रतिदिन सुननेसे यह फल प्राप्त होता है कि वे उसके अनुग्रहसे वैसा (उपदेशके अनुसार) आचरण भी करने लगते हैं। इसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टि पहलेसे आचरण भी करते हैं उनको यह फल प्राप्त होता है कि वे इसके
अध्याय