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Kareeyay
भनगार
धान हैं इसलिये इनको रत्नत्रय कहते हैं। क्योंकि जीवको अभ्युदय और निःश्रेयसका सम्पादन ये ही करा सकते हैं । यह रत्नत्रयरूप परिणाम जिनकी आत्मामें प्रकट होगया है, और जो संसारसे भीरुता-संवेगके कारण सूत्रसत्य और युक्तियुक्त प्रवचनको ग्रंथ अर्थ या उभयरूपस गुरुपरम्परा-तीर्थकर या गणधरदेवादिकक शिष्य प्रतिशिष्योंसे ज्योंका त्यों सुनकर और उसके अशेष विशेषोंको इस प्रकारसे धारण करके कि जिससे कालांतरमें भी उनका विस्मरण न होसके. विनेयोंको-ऐसे शिष्योंको कि जिन्होंको शास्त्रका इस प्रकारसे अभ्यास कराया जाता है-शिक्षा दी जाती है कि जिससे वे उस विषयमें संशयादिरहित और व्युत्पन्न होजांय- दोनो नयोंके बलसे निश्चय करादेते हैं उन श्री कुंदकुंदाचार्य प्रभृति धर्माचार्योंको हमारा नमस्कार है।
सूत्र प्रकरण या आन्हिकादिरूपसे रचे गये ऐसे वचनसंदर्भको ग्रंथ कहते हैं जिससे कि विवक्षित पदार्थका प्रतिपादन हो सके । ग्रंथों में जिन विषयोंका प्रतिपादन किया जाता है उनको अर्थ कहते हैं। सूत्र-शब्दका अथं यद्यपि ऐसा होता है कि जो पदार्थोंको सूचित करे अथवा जिस वाक्यमें संक्षपसे बहुतसे पदार्थोंका संकलन करदिया जाय । अर्थात् सत्य और युक्तियुक्त प्रवचनको ही सूत्र कहते हैं। फिर भी यहांपर सूत्र शब्दसे अङ्गप्रविष्ट और अंगबाह्य इन दो भेदरूप श्रुतके कहनेका ही प्रयोजन है। इनमेंसे पहले भेदकी गणधरादिकने और कालिक उत्कालिकरूप आदि दूसरे भेदकी रचना दूसरे आचायाने की है। उक्त आचार्य भगवद्भाषित किंतु गणधरादिरचित सूत्र-श्रुतका भवभीरुताके कारण कभी ग्रंथोंका कभी अर्थका और कभी दोनोंका आश्रय लेकर गुरुमुखसे ज्योंका त्यों श्रवण और अवधारण करते हैं। यहांपर भवभीरुता, श्रवण और अवधारण इन दोनो क्रियाओंका करण है। अत एव जिस प्रकार सडासीकी दोनो फली एक साथ ही बटलोईसे सम्बद्ध होती हैं उसी प्रकार यह (भवभीरुता) भी दोनो क्रियाओंके साथ युगपत् ही अन्वित होती है ।
इस प्रकार उक्त आचार्य गुरुपरम्परासे चले आये सूत्रप्रवचनको स्वयं सुनते और अवधारण करते हैं; यही नहीं किंतु दोनो नयोंके बलसे अपने शिष्योंको भी उसका दृढ ज्ञान करादेते हैं। श्रुतज्ञानीके जो पदार्थके एकदेशका निश्चय होता है उसीको नय कहते हैं। इसके दो भेद हैं, जिनको कि आगमकी भाषामें द्रव्यार्थिक नय और पर्याया
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अध्याय