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अनगार
र्थिक नय, किंतु अध्यात्मकी भाषामें व्यवहार नय और निश्चय नय कहते हैं। इन दोनो नयोंमें यह सामर्थ्य है कि सर्वथा एकांतवादके माननेवाले, उक्त प्रवचनमें, इनके रहनेसे, किसी तरहकी भी बाधा उपस्थित नहीं करसकते । अत एव उक्त आचार्य इन नयोंकी सामर्थ्यसे अपने शिष्योंको भी उक्त प्रवचनका इस तरह दृढ ज्ञान करादेते हैं जिससे कि वे उस विषयमें बिलकुल संशयादिरहित और अच्छी तरह व्युत्पन्न हो जाते हैं।
इस प्रकार सिद्ध भगवान्के स्वरूपका तथा उसकी प्राप्तिके उपायका निरूपण कर सकनेवाले परमागमके उपदेष्टा और उसके ग्रंथरूपमें रचयिता तथा व्याख्याता और जिनका गुरुपद सबसे प्रधान और महान मानागया है ऐसे श्री अर्हद्भट्टारक और उक्त गणधरादिक चार तथा आरातीप-ऐदंयुगीन प्रधान धर्माचार्योंकी क्रमसे स्तुति की। अब उन्होंने जो धर्मोपदेश दिया था, जो कि वक्ता और श्रोता दोनोंके कल्याणका करनेवाला है, उसकी स्तुति करनकोलये ग्रंथकार कहते हैं
धर्म केपि विदन्ति तत्र धुनते संदेहमन्येऽपरे, . तद्धान्तेरेपयंति सुष्टु तमुशन्त्यन्येऽनुतिष्ठन्ति वा ।
श्रोतारो यदनुग्रहादहरहर्वक्ता तु रुन्धन्नघं,
विष्वाग्निर्जरयंश्च नन्दति शुभैः सा नन्दताद्देशना ॥५॥ जिसके निमित्तसे जीव नरकादिक गतियोंसे निवृत्त होकर उत्तम गतियोंमें जा उपस्थित होते हैं अथवा जो अपनेको उत्तम गतियोंमें ही अवस्थित रखता है उसको धर्म कहते हैं । यह धर्म मोह और क्षोभसे रहित आत्मपरिणामरूप है; अथवा वस्तुके याथात्म्यस्वभावरूप; यद्वा उत्तमक्षमादि दशलक्षणरूप है। दूसरोंके हितार्थ इस धर्मके प्रतिपादन करनेको धर्मोपदेश कहते हैं।
कितने ही जीवोंके, जिनके कि ज्ञानावरण कर्मका तीव्र उदय हो रहा है, इस धर्मके विषयमें अनध्यव.
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