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अनमार
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अध्याय
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प्रसादसे और भी अच्छी तरह आचरण करने लगते हैं ।
धर्मोपदेशका यह फल श्रोताओंकी अपेक्षासे कहा गया है किंतु वह केवल श्रोताओंको ही नहीं, वक्ताको भी प्राप्त होता है । वह वक्ता भी इसके अनुग्रहसे सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्ररूप कर्मोंका संचय करता, तथा पूर्वसंचित पुण्य कर्मके फलरूप अभ्युदयोंसे प्रतिदिन समृद्धियाँको प्राप्त होता है । क्योंकि पुण्यका संचय और फल शुभ परिणामोंसे प्राप्त होता है और धर्मोपदेश देनेसे शुभ परिणाम होते हैं । इसी प्रकार आगामी काल में मन वचन और काय इन तीन योगोंके द्वारा आनेवाले तथा ज्ञानावरणादि पापकर्मरूप परिणमन करने योग्य पुद्गलोंका वह निराकरण- संवर करता, तथा पूर्वसंचित पापकर्मों का क्रमसे क्षपण - निर्जरा भी करता है । सारांश यह कि धर्मोपदेश स्वाध्याय नामका तपोविशेष है । इसलिये उसके प्रसाद से धर्मोपदेष्टा - वक्ता के अशुभ ailer संवर और उसके साथ साथ निर्जरा होती है। किंतु इस उपदेश में प्रशस्त राग भी पाया जाता है । इसलिये उसके निमित्तसे पुण्यपुञ्जका आस्रव तथा पूर्वबद्ध पुण्य कर्मका प्रचुरतया विपाक भी होता है, जिससे कि नवीन नवीन विविध अभ्युदयोंकी सिद्धि होती है ।
भावार्थ - जिसके अनुग्रहसे अनेक श्रोताओंको मुख्यतया धर्मके स्वरूपका ज्ञान या उस विषयके संशयका विनाश अथवा विपर्यासका निरास, यद्वा श्रद्धानका पुष्टीकरण और चारित्रकी सिद्धिरूप विशेष विशेष फल प्राप्त होते हैं, एवं व्याख्याताको अशुभ कर्मोंका संवर और निर्जरारूप तथा पुण्यपुञ्जका आस्रव और उसके उदयसे विविध अम्युदयोंकी प्राप्तिरूप फल होते हैं । वह धर्मकी देशना सदा समृद्धिको प्राप्त हो । इस प्रकार आशीर्वादात्मक नमस्कार के द्वारा ग्रंथकारने यहांपर धर्मोपदेशकी स्तुति की है ।
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पूर्वोक्त प्रकारसे भगवान् सिद्धपरमेष्ठी प्रभृतिके गुणगणका पुनः पुनः स्मरणरूप मुख्य मंगल करके अब ग्रंथकार वक्ष्यमाण ग्रंथकी आदिमें उसके प्रमाण और उसमें जिस विषयका वर्णन करेंगे उसके नामसे ही ग्रंथके भी नामको प्रकाशित करते हुए ग्रंथरचना करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं । -
धर्म
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